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भवेत्तस्यायंखण्डे व विरजा नगरी परा ।
यस्यां कर्मरजस्युच्चै निष्धुं यस्युविदोऽमलाः ॥ १०१ ॥ तदनन्तरमेवात्र !
बनतो रणवेदीभिर्भूषिता तटयोर्द्वयोः ॥ १०२ ॥ ततोऽस्ति कुमुदा भिख्यो देशोधर्मसुखाकरः । erयन्ते योगिनो धीरा यत्रारण्याचलाविषु ॥ १०३ ॥ अशोकानगरी तत्रातीतशोकंबुता । श्रजयन्ति सदा धर्मं यस्यां वक्षाव्रतादिभिः ॥ १०४ ॥ ततः सुखावही नाम्ना वक्षारोऽस्ति सुखाकरः । तत्रस्यानामिहामुत्र संततं पुण्यकर्मभिः ॥ १०५ ॥ सिद्धाख्यं कुमुदा मिल्यं सरिताह्वयमेव हि । सुखावहमिमान्यस्य चतुः कूटानि मस्तके ॥ १०६
अर्थः- पद्मावती देश के ग्रागे सीतोदा नाम की विभंगा नदी है, जिसका श्रायाम कुण्ड व्यास से हीन देश के आयाम प्रमाण है ||५|| विभंगा के पश्चिम भाग में शङ्खा नामक श्रेष्ठ देश है, जहाँ पर गणनातीत अर्थात् श्रसंख्याते शलाका पुरुष उत्पन्न होते हैं। उसके मध्य में स्वर्ग और मोक्ष देने वाली अरजा नाम की नगरी है, जहाँ से भव्यजन धर्माचरण के द्वारा निरन्तर स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करते हैं ।।६६-६७ ।। इस देश के श्रागे देश की लम्बाई प्रमाणु श्रायाम से युक्त, चार कूटों से श्रलं - कृत और कञ्चन की आभा को धारण करने वाला प्राशीविष नाम का वक्षार पर्वत है। उसके मस्तक पर सिद्धकूट, शंखाकूट, नलिन और प्राशीविष नाम के चार कूट हैं ।।६८-६६ ॥ वक्षार पर्वत के श्रागे नलिन नाम का देश है, जहाँ पर धर्म मार्ग के प्रकाशन हेतु अथवा सन्मार्ग की प्रवृत्ति हेतु गरणधरदेव, श्राचार्य और उपाध्याय निरन्तर बिहार करते हैं । इस देश के श्रायें खण्ड में विरजा नाम की श्र ेष्ठ नगरी है, जहाँ पर विद्वज्जन कर्म रूपी रज-धूल को भलीप्रकार न करके निर्मल होते हैं, अर्थात् मोक्ष प्राप्त करते हैं ।। १०० - १०१ ॥ इस देश के बाद ही दोनों तटों पर वनों, तोररणों एवं वेदियों से विभू षित श्रोतवाहिनी विभंगा नदी है ।। १०२ || विभंगा के पश्चिम में धर्म और सुख का आकर ( खान ) कुमुद नाम का देश है, जहाँ के वनों और पर्वतों पर निरन्तर धीर-वीर योगिगरा ( साधु ) दिखाई देते हैं। वहाँ शोक आदि से रहित बुद्धिमान मनुष्यों से भरी हुई अशोक नामक नगरी है। जहाँ पर व्रत श्रादि करने में चतुर भव्य जन सदा धर्म का अर्जन करते हैं ।। १०३-१०४ ।। उस कुमुद देश के श्रागे सुखोत्पादक सुखावह नाम का वक्षार पर्वत है, जहाँ के मनुष्य सदा पुण्य क्रियानों के द्वारा इहलोक और परलोक में सुख प्राप्त करते हैं और जिसके शिखर पर सिद्ध कूट, कुमुद, सरिता और सुखावद्द् नामक चार कूट हैं ।। १०५ - १०६ ।।