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अष्टमोऽधिकार:
[ २४६ सिद्धकूटं च पाख्यं सुपमाकूटनामकम् । शब्दवत् कूटमेतानि स्युः कूटान्यस्य मस्तके ॥५॥ ततो भवेत् सुपमाख्य देशः पनालयोपमः । साध्यते यत्र धर्माद्यः पनालोकत्रये स्थिता ।।६।। तत्र सिंहपुरीसंज्ञा नगरी राजते तराम् । कर्मेभहननोवयुक्त नरसिंहैः सुधार्मिकैः ॥७॥ ततो नवी विभंगास्ति क्षारोदाख्या मनोहरा। कुण्डालित्य सौतोदा मध्यायाता क्षयातिगा ।।८।। पुनर्देशो महापद्माह्वयः षडजितः । नद्यद्रिवनसनामपुरा मिभिःशुभैः ।।८६।। तन्मध्ये नगरी रम्या महापुरी समाह्वया । साधयन्ति महान्तोऽस्याः स्वर्ग मोक्षं तपोवृषात् ॥१०॥ ततो विकटवान्नाम्ना वक्षारोऽस्ति सराश्रितः । सिद्धायतनकूटं च महापद्माल्यकं ततः ॥६१॥ कूटं हि पदमकावत्याद्वयं धिकटवत् परम् । नाम्नेमानि चतु-कूटानि सन्ति शिखरेऽस्य च ॥२॥ ततोऽस्ति विषयः पद्मावतीसंझको महान् । यत्र केलिनः पुंसां विहन्ति शिवाप्तये ॥१३॥ तन्मध्ये राजधानी स्यात् विजयापरमापुरी।
यस्त्रां मोक्षाय धर्माय स्वजन्मेच्छन्ति नाफिनः ॥४॥ अर्थ:-निषधपर्वत के उत्तर भाग में पश्चिम भद्रशाल की मणिमय और शाश्वत वेदी है। ॥श। वेदो के पश्चिम भाग में पद्मनाम का सुन्दर देश है, जिसके विजयार्थ पर्वत और गंगा-सिन्धु नदियों के द्वारा छह खण्ड होते हैं । इस देश के मध्य में पुण्य की जननी के सदृश अश्वपुरी नाम की नगरी है, जो पुण्यवान् पुरुषों एवं विद्वज्जनों से परिपूर्ण और जिन चैत्यालयों से सुशोभित है ।।८२-८३।। इस देश के पश्चिम में शिखर पर चार कूटों से युक्त एवं वन वेदी आदि से अलंकृत हेमवर्ण वाला दाब्दवान् नामक बक्षार पर्वत है । इस पर्वत के अग्रभाग में सिद्धकूट, पद्यकूट, सुपद्म और शब्दवान् नाम के चार कूट अवस्थित हैं ॥८४-८५॥ इस वक्षार के पश्चिम में लक्ष्मी के प्रालय की उपमा को