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सप्तमोऽधिकार :
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पुण्यकल्पद्र मोभूता एताः सर्वाः सुसम्पदः । फलभूता महाभोगा जानन्तु चक्रवतिनः ॥२८५।। मत्वेति व्रतशोलाद्यैः शर्मकामाः सुबत्नतः ।
अर्जयन्तु सदा धर्म स्वर्मुक्तिश्रीवशीकरम् ॥२८६।। अर्थः- चक्रवर्ती के पूर्वोपार्जित पुण्य रूपी कल्पवृक्ष से उत्पन्न होने वाली ये सब उत्तम सम्पदाएँ और उसी वृक्ष के फल स्वरूप ये उत्कृष्ट भोग हैं ऐसा जानो, और सुख की इच्छा करने वाले मनुष्यों ! इसे धर्म का प्रसाद मानते हुये ही व्रत और शोल आदि के द्वारा समीचीन पुरुषार्थ द्वारा स्वर्ग और मोक्ष लक्ष्मी को वश करने वाले धर्म का निरन्तर अर्जन (संचय) करो ॥२८५-२८६।। प्रम अन्य चक्रवतियों के नगरों एवं देशों का विवेचन करते हैं :
ययास्य चक्रिणः प्रोक्ता मूतयो दिग्जयादयः । तथा ज्ञेया धिबेहेऽस्मिन् सकले चक्रवर्तिनाम् ।।२८७॥ व्यावर्णनं कृतं यत् क्षेमापुर्या मयाऽखिलम् । विवेहेज्य पुरीणां च तदशेयं न चान्यथा । २८८।। कच्छाविषयषटखण्डानां प्रोक्तावर्णना यथा।
तथा द्विधा विदेहे स्याह शखण्डाखिलात्मनाम् ॥२६॥ अर्थ:--जिस प्रकार इस चक्रवर्ती को विभूति एवं दिग्विजय प्रादि का वर्णन किया गया है उसी प्रकार इस विदेह क्षेत्र सम्बन्धी समस्त चक्रवतियों का जानना चाहिये । मेरे ( आचार्य ) द्वारा क्षेगापुरी नगरी का सम्पूर्ण वर्णन जिस प्रकार किया गया है, विदेह क्षेत्र में स्थित अन्य पुरों का समस्त वर्णन इसी प्रकार जानना चाहिये, अन्य प्रकार नहीं । कच्छा देश में जिस प्रकार छह खण्डों का वर्णन किया गया है, पूर्व-पश्चिम विदेह स्थित देशों के छह खण्डों का समस्त वर्णन इसी प्रकार है ।।२८७-२८६।।
धर्म का फल कहते हैं :इति सुकृतविपाकाच्चक्रिलक्षम्यो महत्यो,
निरुपमसुखसारा रत्ननिध्यादयश्च । त्रिजगतिसुपदाधाः स्युः सतां होति मत्वा,
भजत चरणयोगः कोविदा ! धर्ममेकम् ॥२६॥ अर्थ:- इस प्रकार महान पुण्य विपाक से सज्जन पुरुषों को चक्रवर्ती की विशाल सम्पत्ति, निरुपम सुख, चौदह रत्न और नौ निधियाँ प्रादि तथा देवेन्द्र, धरणेन्द्र, खगेन्द्र आदि विविध प्रकार के उत्तम पद प्राप्त होते हैं, ऐसा मान कर-हे प्रवीण जनो ! अत, तप, संयम आदि शुभ योगों के द्वारा निरन्तर एक धर्म का हो सेवन करो ॥२६०।।