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सप्तमोऽधिकारः
तत्राचले विरस्याशु कस्यचिन्नाम चक्रभृत् । लिखेत्स्वकुलनामस्तोत९॥
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अर्थः- चक्रवर्तियों के मान की हरण करने वाला यह वृषभाचल पर्वत सौ योजन ऊँचा, मूल में सौ योजन चौड़ा, मध्य में पचहत्तर योजन चोड़ा और शिखर पर पचास योजन चौड़ा है, तथा वन, तोरण एवं वेदी आदि से सहित है ।।२०६ - २०६|| विदेह स्थित बत्तीस वृषभाचलों की ऊँचाई भादि का समस्त वर्णन इसी वृषभाचल के सदृश जानना चाहिये ।।२१० || इस वृषभाचल पर्वत पर चक्रवर्ती पृथिवी पर अपनी कीर्ति स्थाई करने के लिये अन्य किसी चक्रवर्ती का नाम मिटाकर अपने कुल नामादि युक्त प्रशस्ति लिखता है || २११ ||
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अब चक्रवर्ती के नगर प्रवेश का क्रम आदि कहते हैं :
ततः खण्ड योत्पन्नान् जित्वा खगनृपामरान् । तत्सारवस्तु कन्यादीन् गृहीत्वा याति पुण्यतः ॥ २१२ ॥ रूप्याघपरभागस्थ गुहाद्वारेण चक्रभूत् । प्राग्वच्चोद्घाटितेनैव तच्चमूपतिना स्वयम् ॥ २१३॥ इति षट्खण्डवासिसुरभूपखगाधिपान् । साधयित्वा कमातेभ्यः कन्यारत्नान्यनेकशः ॥१२१४|| वस्तुवानकोटींश्चादाय पुण्यात् स्वलीलया । वज्जीव स्वपु चक्रो प्रविशेषच षडङ्गभूत् ॥ २१५।। तत्रातिपुण्यपान भुंक्त भोगांच्युतोपमान् । चक्रोदशविधान् कुर्वन् जिनधर्ममनारतम् ।।२१६॥
अर्थ:- इसके बाद तीन खण्ड में उत्पन्न विद्याधरों, राजाओं और देवों को जीतकर पुण्य प्रताप से वहाँ की कन्या यदि सार वस्तुओंों को लेकर चक्रवर्ती वापिस आता है । जब चक्रवर्ती विजयार्ध पर्वत के पश्चिमस्थ गुफा द्वार पर छाता है तब सेनापति स्वयं पूर्ण के समान उस गुफा द्वार को खोलता है ।।२१२ - २१३।। इस प्रकार छह खंडवासी देवों, नरेंद्रों और विद्याधरों को क्रमशः जीतकर तथा श्रतिशय पुण्य से करोड़ों वस्तु, वाहन आदिकों को क्रीडा मात्र में ग्रहण करके चक्रवर्ती छह चह्नों की सेना सहित इन्द्र पुरी के समान अपनी नगरी में प्रवेश करता है और वहाँ श्रश्यन्त पुण्योदय से उपमा रहित भोगों को भोगता हुआ जिन धर्म में है रस मन जिसका ऐसा चक्रवर्ती दश प्रकार के धर्मो का पालन करता है ।।२१२ - २१६ ॥