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सिद्धान्तसार दीपक के द्वारा अभेद्य और चर्म रत्न के बरावर एक छत्ररत्न फैला दिया गया। ये दोनों रत्न मिलकर ( एक ऊपर एक नोवेमारा को भारत के सर हो गये। कुल के पुण्य में चार दामों में सुना हुन दोनों रत्नों के बीच में समस्त सेना निराबाध और सुख पूर्वक ठहरो रही ।।१६८-२०१।। इसके बाद "यह उपद्रव देवों द्वारा उत्पन्न किया गया है "यह नानकर चक्रवर्ती उन देवों का चिन्तन ( लक्ष्य ) करके ही एक दिव्य बाण छोड़ता है। उस एक ही बारण से वे दुष्ट देव कान्ति हीन हो गये, तथा म्लेच्छ राजाओं के साथ साथ वे सब देव चक्रवर्ती के महान् माहात्म्य को देख कर उनके पास आये और हाथी, अश्व, रत्न एवं कन्या आदि दान के द्वारा भक्ति पूर्वक उनकी सेवा करने लगे ।।२०२-२०४।। प्रब चक्रवर्ती के मद एवं निर्मद होने का कारण दर्शाते हैं :
ततो म्लेच्छाधिपांश्चक्री साधयन याति पुण्यतः । मध्यमम्लेच्छखण्डस्थ वृषभाचलसन्निधिम् ॥२०॥ तदा चक्राधिपो देवखगभूपजयोद्भवम् । उद्घ हन् परमं गर्व वाञ्छन स्वनामलेखनः ॥२०६॥ स्वकीति निश्चलां फतुमभ्येत्याद्रि निरीक्ष्य तम् ।
निर्मदो जायतेऽनेक चक्र शनामवोक्षणात् ॥२०७।। अर्थ:-लेच्छ खण्ड के राजाओं को जीतता हुआ चक्रवतीं पुण्य के प्रभाव से मध्यम म्लेच्छ स्वरात में स्थित वृषभाचल के समीप पहुँचता है। देव एवं विद्याधर प्रादि राजाओं को जीत लेने से उत्पन्न होने वाले महान गर्व को धारण करता हुआ वह अपने नाम लेखन के द्वारा अपनी कोर्ति निश्चल करने को इच्छा से वृषभाचल को प्रार करता हुमा उसे दबता है, तथा अनेक चक्रवतियों के नाम दस्ख कर तत्क्षण निर्मद हो जाता है ।।२०५-२०७।।
अब वृषभाचल पर्वत के प्रमाण प्रादि का एवं उस पर चक्रवर्ती के प्रशस्ति लेखन का वर्णन करते हैं :--
शतयोजनविस्तीर्णो मूले मध्ये च योजनः । पंचसप्ततिसंख्यानै विस्तृतो मस्तके महान् ॥२०॥ पंचाशत्संख्यक ति स योजनशतोन्नतः । बनतोरणवेद्यायनिहब वृषभाचलः ॥२०६॥ अनेन वर्णनेनात्र विदेहवृषभाद्रयः । द्वात्रिशन्निखिला शेयाः समाना उन्नतादिभिः ।।२१०।।