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सिद्धान्तसार दोपक
अर्थ:-चक्रवर्ती म्लेच्छ प्रादि वण्डों को जीतने के लिये उत्तर दिशा में कम से जाते हुये अपनी महान सेना सहित विजया के समीप बहुत काल तक रहता है । चक्रवर्ती के प्रादेश से सेनापति आकाशगामी धोड़े ( अश्वरत्न ) पर चढ़कर विजयार्ध पर्वत को तमिथ नाम की गुफा द्वार को देदीप्यमान दण्ड रत्न से अत्यन्त जोर से घात करता (ठोकर मारता) है और वह उत्तम बुद्धि का धारी सेनापति तत्क्षण आकाश में उड़ता हुआ म्लेच्छ खण्ड को जाता है ।। १८१-१८३॥ दण्डधात के द्वारा उस गुफा के दोनों द्वार खुल जाते हैं और उसके भीतर से अत्यन्त दुस्सह उष्मा ( उष्णता ) का समूह निकलता है। छह मास के बाद वह उष्णता का समूह शान्त होता है और गुफा शीतल होती है तब तक सेनापति एक म्लेच्छ खण्ड को साध (जीत) लेता है। इसके बाद चक्रवर्ती की महान सेना विजयाधं गुफा द्वार के मुख में प्रवेश करके नदी के दोनों पार्श्वभागों में यत्नपूर्वक चलती हुई कम से गुफा के मध्य भाग में पहुँचकर उन्मग्नजला और निमग्नजला इन दोनों नदियों को पार करने में असमर्थ होती हुई चिन्तातुर होकर ठहर गई ॥१८४-१८७।। विजया पर्वत के दोनों पार्श्व भागों को भित्ति (मूल में) स्थित दो कुण्डों से निकलने वाली उन्मग्नजला और निमग्नजला नाम की दोनों नदियां दो योजन लम्बी और महान् कल्लोलों के समूह से संकुलित होकर बहती हुई अति दुर्गम रक्ता महानदी के मध्य में प्रविष्ट होती हैं । तब चक्रवर्ती के आदेश से स्थपति नाम का (बढ़ई) मनुष्य रत्न दिव्य शक्ति के द्वारा दोनों नदियों पर सेतुबन्ध का प्रबन्ध करता है 1 पुण्ययोग से समस्त सेना उन दोनों नदियों को शनैः शनैः उत्तीर्ण कर गुफा के उत्तर द्वार से सुख पूर्वक निकल जाती है ॥१८८-१६१।।
अम मध्यम म्लेच्छ खण्ड में चक्रवर्ती के प्रदेश एवं उनके ऊपर पाये हुये उपसर्ग का वर्णन करते हैं :---
मध्यस्थम्लेच्छखण्डस्य धरामाक्रम्य चक्रभत् । तिष्ठेत् षडङ्गसंयुक्तो जेतु म्लेच्छनपान बहून् ।।१९२॥ चक्रयागमं तदालोक्य म्लेच्छया भयातुराः । विज्ञापयन्ति चाभ्येत्याराध्य स्वकुलनिर्जरान् ।।१६३॥ तच्छ त्वा ते धागत्यामरा मेघमुखाह्वयाः । तत्सैन्यसुभटावीनां कुर्वन्त्युपद्रवं महत् ।।१९४॥ व्याघ्राद्यैर्भाषणरूपविविधश्चक्रिपुण्यतः । मनाक क्षोभं न गच्छन्ति सैन्यकास्तरुपद्रवः ॥१५॥ पुनस्ते मेघधाराद्यैः स्थूलः स्वविक्रियाकृतः । कुर्वते महती पृष्टि विद्युत्पातादि गर्जनः ।।१६६।।