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सिद्धान्तसार दीपक अमोघाख्यं स्फुरद्दोघं शरं मुञ्चति पाणिना। मागवावासमुद्दिश्य मागधद्वीपसंस्थितम् ।।१७४।। शकिनामा कितो काणः कुर्मद जयनिहारतम् । भयं तद्वासिदेवानां पते वसभाक्षितौ ॥१७५।। मागधाख्योऽमराधीशः चक्रिनामाङ्कितं शरम् । तं वीक्ष्य सहसादाय ज्ञात्वा चक्रघागमं ध्रुवम् ॥१७६॥ अभ्येत्य शिरसा नत्वा चक्रेशं पूजयेन्मुदा । विख्याभरणरत्नाद्यस्तदाज्ञां प्रोद्वहस्वयम् ।।१७७॥ अनेन विधिनाऽसौ वरतनु व्यन्तराधिपम् । शक्त्या वरतनु द्वीपाधीशं प्रभासनिर्जरम् ॥१७॥ सीतान्तःस्थं प्रभासाख्यं द्वीपनार्थ प्रसाध्य च । ताभ्यां नेपथ्य रत्नादीन बहून् गृह्णाति लीलया ॥१७६।। इति दक्षिणदिमागे वासिनोऽमरभूपतीन् ।
जित्वोत्तरदिशां जेतुमायाति स जयन नूपान् ।।१०।। अर्थः—उस क्षेमापुरी नगरी में उत्पन्न होने वाले चक्रवर्ती चौदहरत्न, नौ निधियों को प्राप्त कर सेना से युक्त होते हुये दिग्विजय को प्राप्ति के लिये निकलते हैं ।।१७०॥क्षेमापुरी से निकलकर सर्व प्रथम दक्षिणाभिमुख जाते हैं, वहाँ के सर्व नरेन्द्रों को क्रम से जीतते हुये उत्तम बुद्धि का धारक वह चक्रवर्ती सीतानदी के द्वार पर जाकर अपनी सेना के साथ ठहर जाते हैं। वहां सेना को रक्षा में सेनापति को नियुक्त कर आप स्वयं दिव्य रथ पर चढ़कर सीता नदी के द्वार में प्रवेश करते हुये नदी के भीतर बारह योजन पर्यन्त जाकर उत्तम धनुष बाण ग्रहण करते हैं, जिसकी टङ्कार से मनुष्यों विद्याधरों एवं देवों को कम्पायमान करते हुये मागधद्वीप में स्थित मागध देव के निवास स्थान का उद्देश्य कर अमोघ नाम के देदीप्यमान वाराह को अपने हाथों से छोडते हैं ।।१७१-१७४।। चक्रवर्ती के नाम से अङ्कित वह वाण अपनो ध्वनि से वहाँ के निवासी देवों को भय उत्पन्न कराता हुआ देव सभा के मध्य में गिरता है ।।१७५।। देवों का अधीश्वर मागध नाम देव, चक्कवती के नाम से अंकित उस वारण को देख कर तथा उसे ग्रहण करके और निश्चय से चक्रवर्ती का
आगमन जानकर शीघ्र ही वहाँ पाकर उन्हें शिर से नमस्कार करता है, तथा दिव्यवस्त्राभूषणों एवं रलसमूहों से प्रसन्नता पूर्वक चक्रवर्ती की पूजा करता हुआ उनको प्राज्ञा को स्वयं अपने शिर पर धारण करता है ।।१७६-१७७11 इसी प्रकार वह चको अपनी शक्ति विशेष से वरतनुद्वीप के अधीश्वर