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सनोऽधिकार: ।
[ २१६ का स्वामी महामण्डलीक, सोलह हजार मुकुटबद्ध राजाओं का अधिपति अधंकको (त्रिखण्डाधिपति) और बतोस हजार मुकुटबद्ध राजानों का स्वामी छम्खण्डों का अधिपति, चौदह रत्न एवं नौ निधियों का अधीश्वर चक्रवर्ती होता है ।। १६४ - १६८ ।।
उपयोगी (क्षेपण) इलोकों का अर्थः-- .
अठारह श्रेणियों ( १ सेनापति, २. गणपति, ३ वणिपति, ४ दण्डपति, ५ मन्त्री, ६ महत्तर, ७ तलवर, ८ चतुर्वर्ण ११ चतुरङ्ग, १५ पुरोहित, १६ अमात्य, १७ महामात्य और १८ प्रधान ) के अधिपति से जो कल्पवृक्ष के सदृश सेव्यमान है उसे मुकुट बद्ध राजा कहते हैं । ५.. राजानों से सेव्यमान को अधिराजा, १००० राजामों के स्वामी को महाराजा, २००० राजानों से सेव्यमान को अर्धमण्डलीक, ४००० राजाओं से सेव्यमान को मण्डलीक, ८००० राजाओं के स्वामी को महामण्डलीक, १६००० राजामों से सेवित को अर्धचक्री अर्थात् त्रिखण्डाधिपति कहते हैं, और ३२००० राजानों के अधिपति को जो कि छह खण्ड का अधिपति है, दिव्य मनुष्य शरीर से युक्त और भोगों की खान है उसे चक्रवर्ती कहते हैं ॥१-५॥ क्षेमापुरी के धनों की संख्या कहते हैं :--
क्षेमापुर्याश्चतुविक्षु प्रत्येक सदनानि च ।
षष्टयप्रत्रिषासानि स्युः फलपुष्पयुतान्यपि ॥१६॥ अर्थ:-क्षेमापुरो की चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में फलों एवं पुष्पों से युक्त तीन सौ साठ, तीन सौ साठ उत्तम वन हैं।॥ १६६ ।।
प्रम चक्रवर्ती को दिविजय का विस्तृत व्याख्यान करते हुये सर्व प्रथम दक्षिण दिग्विजय का वर्णन करते हैं :--
तत्रोत्पन्नो हि चक्रेशः प्राप्य रत्नचतुर्दश । निधीन्नवषडङ्गाढयो निर्याति विजयाप्तये ॥१७०॥ क्रमात् स साधयत् भूपान् दक्षिणाभिमुखेम छ । गत्वा सीतासरिदद्वारे स्वसंन्येन बसेसुधीः ।।१७१।। तत्र सेनापतिं चक्री नियोज्य बलरक्षणे। दिव्यं रथंमुदारुह्य सरिद द्वारं प्रविश्य च ।।१७२।। गत्वा नद्यन्तरे द्वादशयोजनानि सबनुः । आवाय तन्निनादेन कम्पयन् नुखगाऽमरान् ।।१७३॥