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सप्तमोऽधिकारः
एकैकस्य सुमेधस्य सन्ति श्रीपतनाः शुभाः । स्थूला नीरौघसंयुक्ता विशत्यग्रशतत्रयम् ।। १५६ ॥ सोऽतिवृष्टयनावृष्टिदुभिक्षाद्याः किलेतथः ।
जायन्तेऽत्र न चा निष्टा श्रन्ये प्रजाऽसुखप्रदाः ।। १६० ।। उत्पद्यन्तेऽत्र तीर्थेशा स्त्रिजगन्नाथसेविताः । गणेशा गणनातीताश्चरमाङ्गाश्च योगिनः || १६१ ॥ चक्रिणो वासुदेवाश्च बलदेवास्तयद्विषः । नारदाः कामदेवाद्या जायन्ते नृसुराचिताः ॥ १६२॥ राजा तथाधिराजश्च महाराजोऽर्धमण्डली । मण्डलीको महामण्डलोकस्त्रिखण्ड सूपतिः ॥ १६३॥
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अर्थः- सौता महानदी के तीर पर तीनों खण्डों का पृथक् पृथक् विस्तार छठे भाग से हीन छ सौ छ्यानवे योजन (६६५३३ यो० ) प्रमाण है । आर्य खण्ड के मध्य में श्रेष्ठ धर्म माता के सदृश क्षेमा नाम की नगरी है ।। १५१ - १५२ ।। इस नगरी का आयाम बारह योजन और विस्तार नौ योजन प्रमाण हैं, तथा यह नगरी एक हजार गोपुर द्वारों एवं पाँच सौ क्षुल्लक ( लघु ) द्वारों से युक्त तथा रत्नमय खाई सेष्टित है। धर्म की खान ( ग्राकर ) के समान यह क्षेमा नगरी एक हजार चतुष्पथों, बारह हजार
चन्द्र
थियों, उन्नत प्रासादों, जिन चैत्यालयों, जिनसंघों, जिन प्रतिमाओं एवं नित्य प्रति होने वाले सहस्रों धर्म महोत्सवों के द्वारा शोभायमान रहती है ।। १५३ - १५५ ॥ मिथ्या मठों अर्थात् मिथ्यात्व के पोषक मिथ्या श्रायतनों, कुशास्त्रों, कुदेवों एवं कुलिङ्गियों से रहित, मिष्यामत और पाखण्डियों से विहोन यह नगरी तीन वर्णों के मनुष्यों से सदा समन्वित रहती है ।।१५६|| यहाँ पर वर्षा काल में भूमर एवं अञ्जन के सदृश सात प्रकार के महामेघ सात सात दिन तक वर्षा करते हैं । कुन्द पुष्ा और के सदृश 'प्रभावाले तथा प्रचुर जल से परिपूर्ण बारह द्रोणमेघ भी योग्य वर्षा करते हैं ! इनमें से एक एक के स्थूल जल के समूह से युक्त प्रत्यन्त शुभ तीन सौ बीस श्रीपतन ( सरित्प्रपात ) होते हैं ॥ १५७ - १५६ ।। इस नगरी में कभी अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष यादि तथा और भी अन्य ईतिय ( अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूसक, सलभ, शुक्र, स्वचक्र और परचक्र ये सात ईतियाँ हैं ) नहीं होतीं । प्रजा को दुख देने वाले अन्य भी कोई अनिष्ट वहाँ नहीं होते || १६० ।। वहाँ पर तीन लोक के इन्द्रों (१०० इंद्रों) से सेवित तीर्थंकर देव, गणनातीत गणधर एवं चरमशरीरी मुनिराज उत्पन्न होते हैं । मनुष्यों और देवों से पूजित चक्रवर्तीीं, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, बलदेव, नारद और कामदेव आदि भी उत्पन्न होते हैं, तथा राजा, अधिराजा महाराजा, अर्धमण्डल, मण्डलीक, महामण्डलीक और त्रिखण्ड - पति भी उत्पन्न होते हैं ।। १६१ - १६३ ।।