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सप्तमोऽधिकारः
[ २०७ प्रमाण है। ये पर्वत मूल और अग्र भाग में वन, वेदी एवं उत्तम तोरणों से युक्त हैं । उन दो सौ कांचन शैलों के शिखरों पर महा उन्नत रत्नमय जिन चैत्यालयों, प्रासाद पंक्तियों, वेदिकानों एवं तोरणों आदि से विभूषित तथा शाश्वत कल्प वृक्षों से युक्त नगर हैं। उन काञ्चनगिरि के नगरों में दश धनुष उन्नत, उत्तम देह से संयुक्त और पस्योपम प्रमाण प्रायु के धारक काञ्चन नाम के उत्तम देव अधिपति स्वरूप से निवास करते हैं ।।५२-८७।। अब ब्रहों और भद्रशाल को वेदियों के अन्तराल का दिग्दर्शन कराते हैं:
योजनानां सहस्र द्वे द्वयाना नवतिः कले ।
द्वे, ह्रदोभयवेद्योः सर्वेषां प्रत्येकमन्तरम् ॥८॥ अर्थः–सीता-सीतोदा के मध्य स्थित अन्तिम हद और उत्तर-दक्षिण भद्रशाल की वेदी इस सब में से प्रत्येक के बीच के अन्तर का प्रमाण २०१३ योजन है। अर्थात् अन्तिम द्रह से २०१२ योजन आगे जाकर भद्रशाल की वेदी अवस्थित है ।।८।।
विशेषार्थ :-विशेष के लिए देखिये त्रिलोकसार गाथा ६६० (टीका सहित)। अब दिग्गज पर्वतों का स्वरूप छह श्लोकों द्वारा कहा जाता है:
कुरुभूम्योर्द्वयोः पूर्वापरादि भद्रशालयोः । मध्ये च द्वि महानद्योः पावथोदिक्षपर्वतौ ।।६।। द्वौ हौ दिग्गजनामानौ शतकयोजनोन्नती । शतयोजनविस्तारौ मूलेऽने विस्तरान्वितौ ॥६०|| पंचाशद्योजन रत्नप्रासादतोरणाहिती। बनवेदीजिनागारालंकृतौ भवतोऽभुतौ ॥६१| पद्मनीलाहयौ शैलौ स्वौवस्सि-कांजनायो। कुमुदाद्रिपलाशाख्याववतं शाद्विरोचनी ।।१२।। इति नामाश्रिता प्रष्टो पूर्वादिदिक्षु दिग्गजाः । जोया एषां च मूर्धस्थमणिवेश्मसु पुण्यतः ।।६३॥ स्वस्याद्रिनामसंयुक्ता प्रष्टौ व्यन्तरनिर्जराः।
देवदेवोपरिवारयुक्ता वसन्ति शर्मणा ।।१४॥ अर्थ:- देवकुरु, उत्तरकुरु इन दो भोगभूमियों में तथा पूर्व भद्रशाल और पश्चिम भद्रशाल वनों के मध्य में महानदो सोता और सौतोदा के दोनों तटों पर दो दो दिग्गज पर्नत प्रवस्थित हैं।