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सिद्धान्तसार दीपक गृह हैं । पूर्व आदि चारों दिशामों में अङ्गरक्षक देवों के १६००. पद्मांकित भवन हैं । देवियों के प्रधान कमलों के चारों ओर अर्थात् आठों दिशाओं में प्रतीहार देवों के १०८ कमलगृह हैं (प्रत्येक दिशा में चौदह, चौदह और विदिशाओं में तेरह-तेरह इस प्रकार एक सौ पाठ हैं ) इसप्रकार उपर्युक्त सर्व पक्षगृहों का एकत्रित योग ( ३२००० + ४००००+४८०००+१६००० + ४०००+१०८+७+१) = १४०११६ प्रमाण होता है । इन परिवार कमलालयों का प्रायाम, ब्यास एवं उत्सेध प्रधान पद्मालय के 'प्रायाम प्रादि से अध अर्थ प्रमाण है। ये सभी सुगन्धित पद्माश्रित रत्नप्रासाद एक एक जिनालय, रत्नमय वेदिका एवं तोरण प्रादि से अलंकृत जानना चाहिये । नागकुमारियों के प्रधान कमलों के साथ साथ बीसों सरोवरों के समस्त कमलों का प्रमाण (१४०११६ ४२०) -- २८०२३२० अर्थात् अट्ठाईस लाख दो हजार तीन सौ बीस है। जितने ये कमल हैं, इन पर स्थित उतने ही प्रासाद हैं (और उतने ही अकृत्रिम जिन चैत्यालय हैं)। अब काञ्चन पर्वतों का सविस्तार वर्णन करते हैं:---
एषां सर्वग्रहाणां च पूर्वपश्चिमभागयोः । प्रत्येकं पञ्च पञ्चव पर्वताः काञ्चनाह्वयाः ।।२।। शतकयोजनोत्सेधा मूले शतकविस्तृताः । पञ्चसप्ततिविस्तारा मध्येने ध्याससंयुताः ॥३॥ पंचाशद्योजनैः स्वोच्चचतुर्थांशधरान्तगाः । मूलाग्रेऽलंकृताः सन्ति बनवेदीसुतोरणः ॥४॥ एषां द्विशतसंख्यानां शिखरेषु महोन्नतः । जिनचैत्यालय रत्नमयः प्रासादपंक्तिभिः ॥१५॥ पेविकातोरणाद्यश्च भूषितानि पुराणि थे । कल्पद्रुमादि युक्तानि भवन्ति शाश्वतानि भोः ॥८६॥ पुरेषुतेषु राजानः कांचनाख्याः सुरोत्तमाः ।
दशचापोच्चविष्याङ्गा वसन्ति पल्यजीविनः ॥७॥ अर्थ:-इन उपयुक्त बोस द्रहों में से प्रत्येक द्रह के पूर्व पश्चिम ( दोनों ) तटों पर पांच पांच (पूर्व तट पर २०४५- १०० और पश्चिम तट पर १००) काञ्चन नाम के पर्वत हैं । जो सौ योजन ऊँचे, मूल में-पृथ्वीतल पर सौ योमन चौड़े, मध्य में पचहत्तर योजन और शिखर पर पचास योजन चौड़े हैं । जमोन में इनका प्रवगाह (नीव) अपनी ऊँचाई का चतुर्य भाग अर्थात् (१)=२५ योजन