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सप्तमोऽधिकारः पर्वत की उत्तर-दक्षिण दोनों दिशाओं में भूमि से दश योजन ऊार दक्षिण-उत्तर नाम वाली दो रमणीक श्रेणियां हैं, जिनका विस्तार दश योजन और पूर्व-पश्चिम आयाम पर्वत के प्राधाम सक्श अर्थात् २२१२ योजन ३३ कोश प्रमाण है। दश-दश योजन को दोनों श्रेणियाँ निकल जाने के बाद पर्वत के मध्य में विजया का विस्तार तीस योजन प्रमाण रहता है ।। १०६-११०।। उन उत्तर-दक्षिण दोनों श्रेणियों में से प्रत्येक श्रेणी पर विद्याधरों की पचपन-पचपन नगरियाँ हैं, जो जिनचैत्यालयों, उन्नत प्रासादों, प्राकारों, गोपुरों एवं उत्तम वनों से विभूषित हैं। इन नगरों के नाम एवं दोघेता आदि के प्रमाण का वर्णन पूर्वोक्त प्रकार ही है ।।१११-११२॥ इसके बाद पुनः पर्वत की ऊँचाई में दशयोजन कार जाकर उत्तर-दक्षिण दोनों दिशाओं में पूर्वोक्त आयाम ( २२१२ योजन ३१ कोश ) और विस्तार (१० योजन) से युक्त दो मनोहर श्रेणियाँ हैं। इन दोनों श्रेणियों पर सौधर्मशान कल्पवासो देव सम्बन्धी आभियोग्य देवों के अनेक दिव्य नगर हैं । पर्वत को ऊंचाई में इससे भी पांच योजन ऊार जाकर अत्यन्त मनोहर और दश योजन चौड़ा शिखर तल प्राप्त होता है ।।११३-११५॥
अब विजयास्थि कूटों के नाम, स्वामी, प्रमाण एवं परिधि प्रादि का सविस्तार वर्णन करते हैं :
सिद्धाख्यं दक्षिणार्धं च खण्डप्रपातसंज्ञकम् । पूर्णभद्राह्वयं कूटं विजयार्धाभिधं ततः ॥११६।। मारिणभद्र मिश्रास्यमुप्तरार्धाभिधानकम् । कूटं वैश्रवणं तत्र नवकूटान्यमून्यपि ॥११७॥ सिद्धकूटे जिनागारः प्राग्वर्णनायुतो भवेत् । खण्डप्रपातकूटाग्रे महमाली सुरो वसेत् ॥११६।। तमिश्र कृतिमालो च षट्कूटाग्रस्थवेश्मसु । स्थकटसमनामानो वातन्ति व्यन्तरामराः ॥११॥ व्यासो मूले च कूटानां क्रोशाग्रयोजनानि षट् । मध्ये सार्धद्विगव्यूत्यग्रयोजनचतुष्टयम् ॥१२०॥ योजनत्रितयं मूनि द्यादौ परिधिरुत्तमा । विस्तृता योजनविश प्रममध्ये च मध्यमा ।।१२१॥ परिधिः स्थाद्धि किञ्चिन्यूनपञ्चदशयोजनैः । शिखरे योजनानां सविशेषा नवसंख्यया ॥१२२॥