________________
पंचमोऽधिकारः
[ १४६
शिखरेऽस्यातिरम्याणि नवकूटान्यमून्यपि । सिद्धायतन कूटं च दक्षिणार्धक नामकम् ॥१०॥ कूटं खण्डप्रपातास्यं पूर्णभद्रसमाह्वयं । विजयार्धाभिधं माणिभद्र तिमिस्रसंज्ञकम् ।।१०२।। उत्तराख्यिकं वश्रवणं कूटान्यमून्यपि । नवोन्नतानि सक्रोशयोजन: षट्प्रमाणकः ॥१०३॥ मूलेऽमीषां च गव्यूत्यषड्योजन सम्मिताः। मध्येसार्धद्वि गव्यूत्यनचतुर्योजनप्रमः ॥१०४॥ व्यासोस्ति नवकूटानांमूनित्रियोजनप्रमः । प्रादौ च परिधिविशतियोजनश्चसम्मिता ।।१०।। मध्येतुल्या च किञ्चिन्यूनपञ्चदशयोजनः । मस्तके योजनानां सविशेषा नवसंख्यकाः ॥१०६।।
अर्थ:-विजया, पर्वत के शिखर पर अत्यन्त रमणोक नौ कूट हैं। उनमें सब कूटों के (पूर्वदिवा को प्रोर से) प्रथम सिद्धायतन वृट, २ दक्षिणार्ध ( भरत ) कूट, ३ खण्डप्रपात, ४ पूर्णभद्र, ५ विजयार्धक्ट ६ माणिभद्र, ७ तिमिश्र, ८ उत्तरार्ध ( भरत ) कूट और (पश्चिम दिशा के अन्त में , गैश्रवण नाम का क्ट है । ये सभी कूट ६४ योजन ऊँचे, मूल में ६ योजन, मध्य में पढ़ाई कोस सहित ४ योजन और शिस्त्रर पर तीन योजन प्रमाग चौड़े ( एवं लम्बे ) हैं। इन नब बू.टों को प्रथम परिधि (कुछ कम) बोस योजन प्रमाण, मध्यम परिधि कुछ कम पन्द्रह योजन प्रमाण और मस्तक पर कुछ अधिक नौ योजन प्रमाण मानी गई है ॥१०१-१०६।। सिद्धायतन कूट का वर्णनः .
क्रोशायामो जिनेन्द्राणां क्रोशार्धविस्तरान्वितः । चैत्यालयश्चपादोनकोशोत्तङ्गः स्फुरत्प्रभः ॥१०७।। मरिणस्वर्णमयबिम्बंदिव्योपकरणः परः । प्राकारतोरणाना मण्डपाधरलंकृतः ॥१०॥ सङ्गोतनाट्यशालाभिषेकक्रोउनसद्गृहै । मणिमुक्ताफलस्वर्णमालाजालेश्चशोभितः ।।१०।।