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सिद्धान्तसार दीपक प्रागजितमहापुण्याविधेशाश्चारुलक्षणाः ।
धर्मार्थादि विधातारो वसन्ति रत्नधामसु ||९८॥ अर्थ:--[विजयाध पर्वत की प्रथम श्रेणी विद्याधरों के (६० + ५०)=११० नगरों से व्याप्त है] प्रत्येक नगर के चारों ओर मरिगयों से खचित स्वर्ण की ईंटों से बनी हुई तथा जल से भरी हुई, एक एक धनुष के अन्तराल से तीन शुभ परि खाएं (खाई) हैं । उन चारों परिवारों के अन्दर भूमितल पर चार धनुष के अन्तर से जिनके शीर्ष पर बुरज व कंगूरे हैं ऐसे स्वर्ण व रत्नमयी ईटों से बने हुए पुर हैं। जिनके चारों ओर शाश्वत उत्त ङ्ग, मेडियों की पंक्तियों सहित चार धनुष चौड़े पृथक् पृथक प्राकार हैं । तीस धनुप अन्तराल से उन ङ्ग, नाना रस्तों से खचित उत्सेध के सदृश चढ़ने के लिए सुन्दर ग्राकार बालो ( सोपान ) सोदियां हैं। दो दो छज्जों के बीच में रत्ल के नोरणों से विभूषित, कपाट युगलों से अलंकृत, ५० धनुष ऊँचे और २५ धनुष विस्तृत गोपुरद्वार हैं। इन सब को प्रादि लेकर और अनेक प्रकार की रचनाओं से युक्त तथा पूर्व दिशा को प्रोर हैं मुख जिनके ऐसे दक्षिणोत्तर बारह योजन लम्बे और पूर्व पश्चिम ६ योजन चौडे. समस्त नगर स्त्रगंपुरी के सदृश शोभायमान होते हैं ॥८७-६४।। यहाँ के प्रत्येक नगर एक हजार गोपुर द्वारों से. पांच सौ लघुद्वारों से, एक हजार चतुःपथों, बारह हजार मार्गी, करोड़ों ग्राम, बहुखेट एवं मटंब आदि को रचनाओं से मनोहर हैं ।।६५-६६॥ यहां के समस्त नगरों में जिनेन्द्र भगवान् एवं सिद्ध भगवान के शुभ मन्दिर हैं तथा वन, उपवन, वापी आदि एवं ऊँचे ऊँचे महलों की पंक्तियाँ हैं। पूर्वोपार्जित महान् पुण्योदय से सुन्दर लक्षणों से युक्त विद्याधर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थों को करते हुये यहां रत्नों के महलों में रहते हैं ।।६७-६८।। विजयाध को द्वितीय श्रेणी का वर्णनः
द्वितीयमेखलायां चाचलस्योमयपाश्र्वयोः । प्रतोली 'वेदिकाढधानि जिनालयान्वितानि च ६६|| कल्पद्रुमादियुक्तानि पुराणि सन्त्यनेकशः ।
सौधर्मशानयोराभिर्योगिकानां सुधाभुजाम् ॥१०॥ अर्थः-विजयार्ध पर्वत की द्वितीय श्रेणो के दोनों पार्श्व भागों में प्रतोली और वेदिका आदि से सहित, जिनालयों से समन्वित तथा कल्पवृक्षों से युक्त अनेक नगर हैं। जिनमें सौधर्म ऐशान इन्द्रों के पाभियोग (बाहन) जाति के देव निवास करते हैं ।।९-१०॥
अब विजया के शिखर पर स्थित नव अटों के नाम एवं उनके विस्तार आदि का प्रमाण कहते हैं:
१. प्रतोल्या
ज.