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सिद्धान्तसार दीपक मतक अनोक देव प्रथम कक्षा में विद्याधर, कामदेव, राजा और अधिराजारों के चरित्रों द्वारा अभिनय करते हुये नर्तकी देव जाते हैं। द्वितीय कक्षा के नतंक देत्र समस्त अर्धमण्डलीक एवं महामंडलीकों के उत्तम चारित्र का अभिनय करते हैं। तृतीय कक्षा के नर्तक देव बलभद्र, वासुदेव और प्रतिवासु देवों ( प्रतिनारायणों ) के वोर्यादि गुणों से सम्बद्ध चारित्र द्वारा महानर्तन करते हुये जाते हैं । चतुर्थ कक्ष के नतंक देव चक्रवतियों की विभूति एवं बोर्यादि गुरगों से निबद्ध चारित्र के द्वारा महाअभिनय करते हुये जाते हैं । पञ्चम कक्षा के नर्तक देव चरमशरीरी यतिगण, लोकपाल और इन्द्रों के गुणों से रचित उनके चरित्र द्वारा अभिनय करते हैं । षष्टम कक्ष के नर्तक देव विशुद्ध ऋद्धियों एवं ज्ञान प्रादि गुणों में उत्पन्न उत्तम चारित्र द्वारा उनके गुण रूपी रागरस से उत्कट होते हुये श्रेष्ठ नृत्य करते हुये जाते हैं, और सतम कक्ष के नर्तक देव चौतीस अतिशय, अष्ट प्रातिहार्य और अनन्तज्ञान आदि गु-शों से सम्बद्ध चारित्र द्वारा उनके गुणरूपो रागरस में डूबे हुये तथा सर्वोत्कृष्ट नर्तन करते हुये जाते हैं। ये सात अनोकों के आश्रित, उत्तम नृत्य करने में चतुर, आनन्द से युक्त, दिव्य वस्त्र और दिव्य अलङ्कारों से विभूषित तथा महा विक्रिया रूप नृत्य करते हुये मेरु पर्वत की ओर जाते हैं।
संगीत के सात स्व द्वार शिव भवाः और गणधरादि देवों के गुणों से सम्बद्ध अनेक प्रकार के मनोहर गीत गाते हुये, दिप कण्ठ, दिव्य वस्त्र ए दिव्य प्राभरणों से मण्डित गन्धर्व देव जिनेन्द्र के जन्माभिधेक महोत्सव में सात अनीकों से समन्वित होते हुये जाते हैं। प्रथम कक्ष में पड्ज स्वरों से जिनेन्द्र के गुण गाते हैं। द्वितीय कक्ष में ऋषभ स्वर से गुणगान करते हैं। तृतीय कक्ष में गान्धार स्वर से गाते हुये जाते हैं। चतुर्थ कक्ष में मध्यम स्वर से जिनाभिषेक सम्बन्धी गीतों को गाते हैं । पञ्चम कक्ष में पञ्चम स्वर से गान करते हैं। परम कक्ष में धैवत स्वर से गाते हैं. और सप्तम कक्ष में निषात स्वर से युक्त गान करते हुलो गन्धर्व देव जाते हैं। इसप्रकार अपनी अपनो देवियों से संयुक्त, सप्त अनौकों के आश्रित, किन्नर और किन्नरियों के साथ वीणा, मृदङ्ग, झल्लगे
और ताल आदि के द्वारा जिनाभिषेक महोत्सव के गुरण समूह में रचित, बहुन मधुर, शुभ और मन को हरण करने वाले गीत गाते हुगे, धर्म राग रूपी रस से उद्धत होते हुये गन्धर्व देव उस महामहोत्सव में जाते हैं।
सात प्रकार को सेनाओं से युक्त, दिव्य प्राभूषणों से अलंकृत, अनेक वर्गों की ध्वजाएं एवं छत्रों सहित हैं हाथ जिनके ऐसे भृत्यदेव जाते हैं। प्रथम कक्ष में प्रजन सदृश प्रभा वाली ध्वजाएँ हाथ में लेकर भृत्यदेव जाते हैं। द्वितीय कक्ष के भृत्यदेव अपने हाथों में मणि एवं स्वर्णदण्ड के शिखर पर स्थित चलते (दुलते) हुये चामरों से संयुक्त नीलो बजाए लेकर चलते हैं। तृतीय कक्ष के भृत्यदेव अपने हाथों में वैडूर्य मरिणमय दण्डों के अग्रभाग पर स्थित धवल ध्वजाए लेकर चलते हैं । चतुर्थ कक्षा के मृत्यदेव अपने हाथों में हाथी, सिंह, वृषभ, दर्पण, मयूर, सारस, गरुड़, चक्र, रवि एव चन्द्राकार कनक (पीली) ध्वजायों के प्राश्रय भूत मरकत मणिमय दण्ड लेकर चलते हैं । पञ्चम कक्षा के