________________
१७६ ]
सिद्धान्तसार दोपक अर्थ:—उस जिनालय के अभ्यन्त र भाग में स्थित पूर्व दिशा के द्वार पर अत्यन्त दैदीप्यमान नाना प्रकार की मणियों को पाठ हजार मालाएं लटकती हैं, और इनके मध्य में रत्नकिरणों से उपचित चौबीस हजार मालाएँ विराजमान होती हैं। सुगन्धित द्रव्य एवं धूप के द्वारा दिशानों को सुगंधित करने वाले चौबीस हजार धूपघट स्थित हैं । सुगन्धित माला समूहों के अभिमुख, सूर्य सदृश तेजपुज से संयुक्त बत्तीस हजार माल एवं स्वमिव काश विस है। मुख्यधारा में बाह्यभाग में जो द्वार हैं, उन पर प्रति मनोहर और दीप्तवान् चार हजार मरिणमय मालाएं, और बारह हजार स्वर्णमय मालाएँ हैं । इनके भी वाह्य भाग में बारह हजार प्रमाण दिव्य धूपघट और स्फुरायमान होने वाली । अपनी किरणों से दीप्त सोलह हजार स्वर्ण कलश स्थित हैं ।। १२-१८॥
अब पौठ, सोपान एवं पोठवेदियों के व्यास प्रादि का और जिन प्रतिमानों का । वर्णन चौवह श्लोकों द्वारा करते हैं:--
जिनागारेऽत्र सन्त्येबदोर्धाणिषोडशप्रमः । साधिकर्योजनैविस्तृतान्यष्टाधिकयोजनः ॥१६॥
ववेन्द्रनीलरत्नादिमयानि परमान्यपि ॥२०॥ मणिसोपान पंक्तिः स्यात्तत्रवीर्घा च योजनः। वयष्टभिरष्टमिासाषड्योजनोन्नता शुभा ॥२१॥ क्रोशद्वयावगाहास्यावष्टोत्तर शतान्यपि । सोपानानि भवन्त्येवप्रोन्नतानि चतुःशतैः ॥२२॥ किञ्चिदुनश्चचापः पञ्चचत्वारिंशदग्रग्ने। पौठपर्यन्तभागेऽस्ति दिव्या सद्रनवेदिकाः ॥२३॥ क्रोशद्वयोन्नताः पञ्चशतचापप्रविस्तृताः । सेषु पीठेषु दिव्याङ्गा अष्टोत्तरशतप्रमाः ॥२४॥ स्फुरनानामणिस्वर्णमयोऽधिनश्वराः शुभाः । धनुः पंचशतोतुङ्गामनोझायोक्षणप्रियाः ॥२५॥ निराभरणवीप्ताश्च' निरम्बरमनोहराः। कोटये कमानुतेजोऽधिक सुतेजो विराजिताः ॥२६॥
१. दीप्राश्च प्र. ज. न.