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सिद्धान्तसार दीपक अर्थ:-देवकुरु उत्तमभोगभूमि के धनुःपृष्ठ का प्रमाण ६०४१८११ योजन और उत्तरकुरु भोग भूमि के धनुःपृष्ठ का प्रमाण ६०४१८१० योजन है । प्रम देवकुरु उत्तरकुरु भोगभूमि को जीवा का प्रमाण कहते हैं :---
भद्रशालवनं द्विघ्नं मेरम्यासेन योजितम् ।
सहस्रोनं भवेज्जीवामध्ये वेदिकयोद्धयोः ॥२६॥ अर्श:-भद्रशाल वन के प्रमाण को दूना करके उसमें मेरु का व्यास जोड़ना चाहिये । जो प्रमाण प्राप्त हो उसमें से दोनों वेदिकामों और गजदन्तों के मध्य का अन्तर अर्थात् गजदन्तों को मोटाई { ५००+५००) = एक हजार योजन घटा देने पर भोगभूमियों को जीवा का प्रमाण प्राप्त होता है ।।२६॥
विशेषार्थः- भद्रशालबन का प्रमाण २२००० यो. है. इसे दुगुना करने पर (२२०००४२)-४४००० योजन हये । इसमे मेरु व्यास १०००० योजन जोड़ देने से (४४०००+ १०००० )=५४००० योजन हये । इसमें से भद्रशाल वन की दो वेदियों और गजदन्तों के बीच का अन्तर अर्थात् गजदन्तों की चौड़ाई ( ५००+५००)- १००० योजन है, अतः इसे घटा देने से देवकुरु, उत्तर कुरु की जोवा का | प्रमाण ५४०००---१००० = ५३००० योजन प्राप्त हो जाता है ।।
देवोत्तरकुरुभोगभूम्योः प्रत्येकं कुलाद्विपार्वे जीवा त्रिपञ्चासत्सहस्र योजनानि ।
अर्थ:-निषध और नील कुलाचल के समीप में देवकुरु और उत्तरकुरु अर्थात् प्रत्येक उत्कृष्ट भोगभूमि की जीवा का प्रमाण ५३००० योजन है । प्रब देवकुरु उत्तरकुरु भोगभूमियों के थाण का प्रमाण कहते हैं :--
विवेहक्षेत्रविस्तारोऽखिलो यो मेरुवजितः।
तस्याधं यत् पृथक क्षेत्र सा वाणवीर्घतोच्यते ॥३०॥ अर्था:-विदेहक्षेत्र के विस्तार में से मेकगिरि का भुव्यास घटा कर आधा करने पर कुरु क्षेत्र के विष्कम्भ का प्रमाण होता है, और यही कुरु क्षेत्र के वाण की दीर्घता का प्रमाण है ॥३०॥
विशेषार्थ:-विदेह क्षेत्र के व्यास का प्रमाण ३३६८४ योजन है, इसमें से मेरुगिरि का भूव्यास १०००० योजन घटाकर आधा करने पर ( ३३६८४८-१००००-२३६८४२) = १९८४२ योजन देवकुरु और उत्तरकुरु के व्यास का प्रमाण है और यही दोनों क्षेत्रों के ( पृथक्पृयक्) वाण का प्रमाण है।
. देवकुरुत्तरक्षेत्रयोः प्रत्येकं वाणः एकादशसहस्राष्टशतद्विचत्वारिंशद्योजनानि योजनेकोनविंशति भागानां द्वौ भागौ।