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सिद्धान्तसार दोपक
इत्यादि रचनाभिश्च धथा यं श्रीजिनालयः । बॉणतः पूर्वदिग्भागे मेरोराथवनेऽखितः ॥ ७८ ॥ तथापरे जिनेन्द्राणां मेरोदित्रिषु संस्थिताः । समानथनोपेता शेयाश्चत्यालयास्त्रयः ॥७६॥ इत्येवं वर्णनः सर्वे जिनालया प्रकृत्रिमाः । समानाः सदृशाज्ञेयाः स्थिता लोकत्रये परे ॥८०॥ किन्त्वन्येषां जिनेन्द्रालयानां स्याद्वर्णनापृथक् । मध्यमानां जघन्यानामायामोत्सेधविस्तरैः ॥ ६१॥
श्रर्थः उन कल्पवृक्षों के मूलभाग की चारों दिशाओं में महादीप्तवान् एवं प्रातिहार्य आदि से अलंकृत जिनेन्द्रों की प्रतिमाएँ हैं ||७७|| जिस प्रकार सुदर्शन मेरु के प्रथम - भद्रशाल वन के पूर्व भाग में स्थित श्री जिनमन्दिर का अनेक प्रकार की रचना आदि के द्वारा सम्पूर्ण वर्णन किया है, उसी प्रकार सुदर्शन मेरु सम्बन्धी भद्रशाल वन में तीनों दिशाओं में स्थित तोन चैत्यालयों का वर्णन जानना चाहिये ॥७६ - ७६॥ इस प्रकार तीन लोक में स्थित अन्य समस्त प्रकृत्रिम जिनालयों की रचना आदि का समस्त वर्णन उपर्युक्त वन के सदृश ही जानना चाहिये, परन्तु अन्य जिनालयों अर्थात् मध्यम जिनालयों और जघन्य जिनालयों के प्रायाम, उत्सेध और विस्तार यादि का वर्णन पृथक् पृथक् है ||५०८१||
अब देवों, विद्याधरों एवं अन्य भव्यों द्वारा की जाने वाली भक्ति विशेष का निवर्शन करते हैं:--
एष श्रीजिनगेहेषु कुर्वन्स्युवं महामहम् । जिनेन्द्र दिव्यमूर्तीनामागत्य भक्तिनिर्भरा ॥ ८२ ॥ चतुणिकाय देवेशा देवदेव्यादिभिः समम् । प्रत्यहं स्वर्गलोकोत्थंम हाच द्रव्य सूरिभिः || ८३ ॥ खगेशाः खचरीभिश्च सहाभ्येत्यात्र पूजनम् । श्रतां विविधं कुर्युक्त्या विव्याष्टधानैः ||८४॥ चारणा ऋषयो नित्यं जिनेन्द्रगुणरञ्जिताः । अत्रेश्य जिनचैस्यादौन प्रणमन्ति स्तुवन्ति च ॥ ६५ ॥ श्रन्येऽपि बहवो भव्या प्राप्तविद्या वृषोत्सुकाः । जिनाच सर्चयन्स्यत्र भक्त्या नरोत्तमाः सया || ६६ ॥