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षष्ठोऽधिकारः
एषु चाप्सरसो नित्यं कुर्वन्ति नृत्यमूजितम् । जिनेशगणभृद्दिव्य चरित्रऔरोक्षपप्रियम् ||८७|| दिव्यकण्ठाश्च किन्नयां गन्धर्वा वीणया सम् गायन्ति सारगीतानि तीर्थेश गुरणजान्यपि ॥ ६८ ॥ इत्युत्सवशर्त: पूर्णा विश्व चैत्यालया हमे । संक्षेपेण मया प्रोक्ता महापुण्य निबन्धनाः ॥ ८६ ॥ यतोऽमीषां पराः शोभा महतीरचनाभुवि । मुक्त्या गणाग्रिमं को बुधो वर्णयितु क्षमः ॥
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अर्थः- अपूर्व भक्तिरस से भरे हुये चारों निकाय के इन्द्र उत्कृष्ट विभूति, देव देवियों एवं स्वर्ग लोक में उत्पन्न हुई महापूजा के योग्य अपरिमित द्रव्य सामग्री के साथ श्राकर उपर्युक्त वरिंगत श्री जिनालयों में स्थित जिनेन्द्रदेव की दिव्य मूर्तियों की प्रतिदिन महामह पूजन करते हैं ।। ८२-८३ ।। विद्याधरों के अधिपति भी अन्य विद्याधर एवं विद्याधरियों के साथ यहाँ ( अकृत्रिम जिन चैत्यालयों
i) आकर भक्ति पूर्वक अष्ट प्रकार की दिव्य सामग्री के द्वारा अर्हन्त भगवान को नाना प्रकार से पूजन करते हैं ||२४|| जिनेन्द्र के गुणों में अनुरज्जित है मन जिनका ऐसे चारणऋद्धि घारी मुनिराज नित्य ही मेरु आदि पर आकर जिनेन्द्र प्रतिमाओं को प्रणाम करते हैं और स्तुति करते हैं ||२५|| अन्य भी और बहुत से विद्या प्रात धर्म उत्सुक एवं मनुष्यों में श्र ेष्ठ भव्य जीव भक्ति से प्रेरित होकर यहाँ निम ही जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करते हैं ||८६|| और वहाँ पर अप्सराएँ नित्य ही जिनेन्द्र भगवान् एवं गणधर देवों के सर्वोत्तम चारित्र के अभिनय द्वारा देखने में अत्यन्त प्रिय और श्रेष्ठ नृत्य करतीं हैं । दिव्य कण्ठ वालों किन्नरियाँ और गन्धर्ण वीणा द्वारा जिनेश तीर्थकरों के गुणों से उत्पन्न हुये गीत तथा और भी सारगर्भित उनम गीत गाते हैं । इस प्रकार ये समस्त प्रकृत्रिम चैत्यालय सहस्रों महोत्सवों से व्याप्त रहते हैं | महा पुण्य बन्ध के हेतुभूत इन चैत्यालयों का वर्णन मेरे (आचार्य) द्वारा संक्षिप्त रूप से किया गया है, क्योंकि लोक में उत्कृष्ट शोभा और महान रचनाओं से व्याप्त इन प्रकृत्रिम चैत्यालयों का सम्पूर्ण वर्णन करने के लिये तोर्थङ्कर को छोड़ कर अन्य कौन विद्वान समर्थ है ? अर्थात् कोई नहीं है १८७६०
श्रत्र मध्यम जिनालयों एवं उनके द्वारों का प्रमाण कहते हैं: पञ्चाशयोजनायामाः पञ्चविंशति विस्तृताः । सार्धसप्ताधिकैस्त्रिशद्योजनः प्रोन्नताः शुभाः ॥१॥ द्विगन्त्यवगाहाः स्युर्मध्यमाः श्रीजिनालया । श्रमीषां मुख्य सुद्वारमुत्तुङ्गमष्टयोजनेः ||२||