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सिद्धान्तसार दोपक अर्था:-सिद्ध, सौमनस, देव कुरु, मङ्गल, विमल, काञ्चन और विशिष्ट नाम के ये साल कूट महासौमनस के शिखर पर अवस्थित हैं । सिद्ध, विद्युत्प्रभ, देवकुरु, पक्ष, स्वस्तिक, तपन, शितोज्वल सीतोदा और हरि नाम वाले ये नव कूट विद्य त्प्रभ के ऊपर स्थित हैं। सिद्ध, माल्यवान, उत्तरकुरु, कच्छ, सागर, रजत, पूर्णभद्र, सीता और हरि नाम के नवकूट माल्यवान् पर्वत के ऊपर हैं, तथा सिद्धायतन, गन्धमादन, उत्तरकुरु, गन्धमालिनी, स्फटिक, लोहित और आनन्दकूट नाम के ये रत्नों को दीप्ति से भास्वर सात बाट गन्धवान् गजदन्त के मस्तक पर अवस्थित हैं ॥१०-१६।। . अब कूटों के स्वामी एवं उदय कहते हैं :----
सिद्धक्टोऽस्ति सर्वत्र प्रोन्नते मेरु सन्निधौ । प्रागुक्तवर्णनोपेतो जिनचैत्यालयो महान् ।।१७॥ कलाचलसमीपस्थ कुटयोश्च द्वयोद्धयोः । वसतो दिग्वधूसंजो द्वे द्वे वेव्याविमे शुभे ॥१८॥ चतुरा गजदाता रत्नसौधे निजे निजे । मित्रादेवी सुमित्राख्या वारिषेणाचलायाः ॥१६॥ भोगाभोगवतीदेवी सुभोगाभोगमालिनी । इमान्यष्टसु नामान्यष्टदिग्वध्वषु योषिताम् ॥२०॥ शेष मध्यस्थकूटानां वेश्मस व्यन्तरामराः । स्वस्वकूटसमः स्युर्नामभियुक्ताः प्रियान्विताः ॥२१॥ स्वस्थाद्रीणां चतुर्थांशः कूटानामुदयः स्मृतः ।
माद्यन्तानां तु शेषाणां हासो वृद्धिः पृथक पृथक ॥२२॥ अर्था:- चारों गजदन्तों पर मेरु के समीप जिनेन्द्र देव सम्बन्धी सिद्धातयन कूट हैं, जो एक सौ पच्चीस योजन ऊंचे हैं। इन चैत्यालयों का समस्त वर्णन पूर्वोक्त जिन चैत्यालय के वर्णन सदृश ही है ।।१७।। चारों गजदन्तों पर कुलाचलों के समीप जो दो दो कूट हैं, उनमें दिवधु नाम की उत्तम दोदो देवियां निवास करती हैं ।। १८|| चारों गजदन्तों के अपने-अपने रत्नमय महलों में अर्थात् महासौमनस गजदन्त के बिमल और काञ्चन बून्दों में मित्रा और सुमित्रा देवी, विद्युत्प्रभ गजदन्त के स्वस्तिक और तपन कूटों पर क्रमशः वारिषेणा और अचला, माल्यवान् के सागर एवं रजतकूटों पर क्रमशः भोगा और भोगवती तथा गन्धवान् गजदन्त के स्फटिक और लोहित कूटों पर क्रमशः सुभोगा और भोगमालिनी नाम को (ये पाठ) व्य नर देवियां निवास करती हैं ।।१६-२०॥