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ठोऽधिकारः
कुण्डले राकेशले मानुषोत्तरनामनि ।
ये
चैत्यालयास्तेऽत्र दीर्घार्थ मध्यमा मताः ॥१०१॥
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ये पाण्डुकवने ते स्युर्जघन्याः श्री जिनालयाः । सर्वेषां विजयार्थानां जम्बूशाल्मलिशाखिनाम् ॥१०२॥
क्रोशायामाः परे क्रोशार्धव्यासाः प्रोन्नताः शुभाः । terraria विश्वे श्रीजिनमन्दिराः ॥ १०३ ॥
अर्थ :-- जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुये और मनुष्यों एवं देवों द्वारा पूज्य उत्कृष्ट जिनालय पञ्चमेरु सम्बन्धी भद्रशाल बनों और नन्दन वनों में तथा नन्दीश्वर द्वीप और वैमानिक देवों के विमानों में हैं। इनका प्रयास, विस्तार एवं ऊँचाई उत्कृष्ट ही कही गई है ।६८-६६॥ पञ्चमेरु सम्बन्धी सौमनस वनों में समस्त कुलाचलों पर, वक्षार पश्तों पर, गजदन्त पर्वतों पर, इष्वाकार पर्वतों पर, कुण्डलगिरि, रुचकगिरि और मानुषोत्तर पत्रतों पर जो जिनालय हैं, उनकी दीता आदि का प्रमाण मध्यम माना गया है ||१०० -१०१॥ पञ्चमेरु सम्बन्धी पाण्डुकवनों में जो जिनालय अवस्थित हैं, उनका व्यासादिक जघन्य प्रमाण वाला है। समस्त विजयाध, जम्बुवृक्षों एवं शाल्मलि वृक्षों पर स्थित जिनालय एक कोस लम्बे, अर्ध कोस चौड़े और पौन कोस ऊँचे हैं, ऐसा जानना चाहिये ||१०२-१०३।
अब भवनत्रिक सम्बन्धी एवं अन्य जिनालयों के साथ श्रष्टप्रातिहार्यो का कथन करते हैं:
भावनव्यन्तरज्योतिष्क विमानेषु सन्ति ये । चैत्यालयाश्च ते जम्बूवृक्ष चैत्यालयः समाः ॥ १०४॥ श्रन्येषु वन सोधाद्रिपुरादिषु सुधाभुजाम् । भवन्ति ये जिनागारा बहवो विविधाश्च ते ।। १०५ ॥ श्रायामविस्तरोत्सेधेषु धर्ज्ञेया बरागमे ।
यतोऽत्र सन्ति सर्वत्र जिनागाराजगत्त्रये ॥१०६ ॥
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भृङ्गारफलशादशं व्यञ्जनध्वजचामराः । सुप्रतिष्ठातपत्राश्च मङ्गलद्रव्यसम्पदा ॥१०७॥
प्रत्येकं हि पृथग्भूता प्रष्टोत्तरशतप्रमाः । एता भवन्ति सर्वेषु जिन वैश्यालयेष्वपि ॥ १०६ ॥