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सिद्धान्तसार दोपक पीठस्योपरिषोत्तुङ्गाः सन्ति षोडशयोजनः । क्रोशव्यासामहास्तम्माः सद्धर्यमयाः शुभाः ॥३॥ स्तम्भानां शिखरेषुस्युन नावान्विता ध्वजाः । छत्रत्रयांफिता मूर्निदिव्यरूपाश्च्यतोपमाः ।।६४॥ ध्वजानांपुरतो याप्यो दीर्धाः शतकयोजनः । पञ्चाशद्विस्तृताः स्युश्चावगाहा दशयोजनः ।।६।। युताः काञ्चनवेदोभिर्मणि तोरणभूषिताः ।
निर्जन्तुजलसम्पूर्णाः शाश्वताः कमलाश्रिताः ॥६६॥ अर्थ:-उस चैत्यवृक्ष से पुनः पूर्व दिशा में जाकर पृथ्वीपर बारह वेदियों से संयुक्त ध्वजासमूहों का एक विशाल पीट है ॥६२।। उस पीट के शिखर पर सोलह योजन ऊँचे और एक कोस विस्तार से युक्त वैडूर्यमणिमय प्रति शोभायुक्त महास्तम्भ ( खम्भे ) हैं ॥६३।। इन खम्भों के शिखरों पर विविध वर्णो से समन्वित, शिखर पर तीन छत्रों से सुशोभित्त, दिव्य रूप से सम्पन्न और अनुपम ध्वजाए हैं ।।६४॥ उन ध्वजारों के प्रागे सो योजन लम्बो, पचास योजन चौड़ो और दश योजन गहरी, स्वर्ण वेदियों से वेष्टित, मरिणमय तोरणों से विभूषित, निर्जन्तु अर्थात् स्वच्छ जल से परिपूर्ण और कमलों से व्यार, शाश्वत विद्यमान रहने वाली वापियां हैं ॥६५-६६।।
अब क्रीड़ा प्रासादों का और तोरणों के विस्तार प्रादि का वर्णन करते हैं:
बापोनां प्राक्तने भागे यु त्तरे दक्षिणे शुभाः। स्वर्णरत्नमयाः सन्ति प्रासादाः कृत्रिमातिगाः ।।६७॥ पञ्चाशद्योजनोत्सेधाः पञ्चविंशति योजनः । मायामव्याससंयुक्ता रत्नवेद्यायलंकृताः ॥६॥ एषु क्रोडागहेपूच्चः देवाः क्रोडा प्रकुर्वते । तेभ्यः पूर्वदिशंगत्वा विचित्रं रत्नतोरणम ॥६६॥ स्थाद्योजनशता?च्चं पञ्चविंशति विस्तरम् ।
मुक्तावामांकितं रम्यं वरघण्टाचयान्वितम् ।।७०॥ अर्थाः-उन वापियों के पूर्व, उत्तर और दक्षिण भागों में अत्यन्त शुभ, स्वर्ण एवं रत्नमम तथा प्रकृत्रिम क्रीड़ा प्रासाद हैं । वे कीड़ागृह पचास योजन ऊँचे, पच्चीस योजन लम्बे एवं चौड़े और रत्नों को वेदी प्रादि से अलंकृत हैं। उन कोडागृहों में देवगण नाना प्रकार की कौड़ाएं करते हैं । उन