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सिद्धान्तसार दीपक हैं। वे जिन प्रतिमाएं शोभायमान मुख चन्द्र से मानो निरन्तर हँस रहीं हैं, और बोल रही हैं तथा तीन लोक के मनुष्यों एवं देवों से पूज्य और मेरे द्वारा सदा वन्दनीय एवं स्तुत्य हैं ॥२७-३२॥ भोपकरलो (मला•il) का वर्णनः--
प्रकृत्रिमा महाभूत्या धर्मोपकरणः परः । प्रत्येकं भिन्नभिन्न दाष्टोत्तरशतप्रमः ॥३३॥ अशोकवृक्षशोमायादेवदुन्दुभिभुषिताः ।
सुरैः कृतमहापुष्पवृष्टचाच्छादितमूर्तयः ॥३४॥ अर्थः-अकृत्रिम और महाविभूति स्वरूप भिन्न-भिन्न मङ्गल द्रव्यों { भारी, कलश, दर्पण, पंखा, ध्वजा, चामर, छत्र और ठोनों ) को सख्या एक सौ पाठ-एक सौ पाठ है । वे प्रतिमाएं (छत्र, चमर, सिंहासन, भामण्डल और ) अशोक वृक्ष को शोभा से युक्त, देवदुन्दुभि से विभूषित और देवों ।। द्वारा की हुई महापुष्पवृष्टि से पाच्छादित (व्याप्त) होतो हैं ॥३३-३४॥ गर्भगृह का वर्णन:--
शुद्धस्फटिकभित्याय वेड्यस्तम्भशोभितम् । नानारत्नप्रभाकीर्ण दिव्यामोदात्तदिग्मुखम् ।।३५॥ जिनेन्द्रप्रतिमानां तद्दवच्छन्दान्यनामधत् ।
गर्भगृहं जगत्सारं राजते नितरांश्रिया ।।३६।। अर्थ:--शुद्ध-निर्विकार स्फटिक मरिणमय दोवालों से युक्त, वैडूर्यमणिमय खम्भों से सुशोभित, अनेक प्रकार के रत्नों को प्रभा से व्याप्त, दिव्य प्रामोद से ग्रहण-सुगन्धित किया है दिशाओं को जिसने ऐसा जगत के सार स्वरूप जिनेन्द्र प्रतिमानों सम्बन्धो देवच्छन्द नाम का गर्भगृह अत्यन्त शोभा से सुशो. भित होता है ।।३५-३६।। ध्वजाओं, मुखमण्डपों और प्राकारों का निर्धारण करते हैं:--
सद्रत्नवेदिकाग्रेषु सुपीठ शिखरेषु च । मणिस्तम्मेषु राजन्ते महान्तोऽन ध्वजोत्कराः ।।३७॥ सिंहहस्तिध्वजा हंसवृषभान्ज शिखिध्वजा । मकरध्वजचक्रातपत्राख्यागरुडध्वजाः ॥३८।। एते महाध्वजा रम्या वशमेव युताः शुभाः । प्रत्येकं च पृथगरूपा अष्टोत्तरशतप्रमाः ।।३।।