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सिद्धान्तसार दीपक नलिनी (८०० ४ २५ = २०००) होती हैं प्रत्येक नलिनी पर एक सौ पच्चीस कमल (२००००४१२५ = २५००००० ) होते हैं। प्रत्येक कमल में एक सौ पाठ, एक सौ पाठ पत्र ( २५०००००४ १०८= २७०००००००) होते हैं, और प्रत्येक पत्र पर एक-एक अप्सरा नृत्य करती है, अतः कुल मप्सरानों की संख्या सत्ताईस करोड़ है।
नोट-पृष्ठ २१५ श्लोक ५-७ के अनुसार:-.-४ मुख x २ दन्त-८ दन्त, प्रत्येक दांत पर १०० सरोवर, ८ x १०० =८०० सरोवर, प्रत्येक सरोवर में २५ नलिनी, ८०० x २५ - २०००० नलिनी, प्रत्येक नलिनी पर १२५ कमल, २०००० x १२५ -२५००००० कमल, प्रत्येक कमल पर १०८ पत्र २५०००००४ १०५=२८००००००० पत्र, प्रत्येक पत्र पर एक एक अप्सरा अर्थात् कुल अप्सराएं २७ करोड़ हैं।
अब ऐशान प्रादि अन्य इन्द्रों और अहमिन्द्रों प्रादि की स्थिति कहते हैं:
याशी दक्षिणेन्द्रस्य सप्तानोकानां संख्याणिता तादृशी संख्योत्तरेन्द्रस्य स्यात् । ईशानेन्द्रोपि दिव्यं तुरङ्गमारुह्यस्वपरिवारालंकृतो नहाधिभुयाराच्छांत । शेषा सनत्कुमारेन्द्राया अच्युतेन्द्रपर्यन्ता देवेन्द्राः समानीकत्रिपरिषद्वेष्टिताः स्वस्व वाह्नविभूत्याश्रिताः सामराः सकलत्रास्तदायान्ति । भवनवासि व्यन्तर ज्योतिष्क देवेशाः समानीक श्रिपरिषदावृता: स्वस्ववाहन विमानाद्यारूढा महाविभूत्या स्त्रदेवदेवोभिः सहायागच्छन्ति सर्वे अहमिन्द्रा प्रासन कम्पेन तज्जन्मोत्सवं विज्ञाय सप्तपदान गत्वा भक्त्या मुर्म स्थानस्था एव जिनेद्रप्र शमस्ति । इत्यादि परया विभूत्या चतुर्णिकायसुरेन्द्राः, सामराः सकलत्राः नानादेवानकध्वान धिरीकृनदि मुखाः, ध्वजछत्रचामर विमानादिभिर्नभोङ्गणं छादयन्त: स्वर्गातीर्थेशोत्पत्तिपुरमागच्छन्ति ।
अर्थ:-जिस प्रकार दक्षिणेन्द्र के सात अनीकों की संख्या का वर्णन किया है। उसी प्रकार की संख्या आदि उत्तरेन्द्र के भी होती है। ऐशान इन्द्र भो दिव्य अश्वों पर चढ़कर अपने परिवार से अलंकृत होता हुआ, महाविभूति के साथ जन्माभिषेक में आता है । शेष सनत्कुमार इन्द्र आदि को लेकर अच्युत इन्द्र पर्यन्त के सभी देवेन्द्र सात अनीकों एवं तोन पारिषदों से वेष्ठित, अपने अपने वाहन रूपी विभूति का आश्रय लेकर समस्त देवों के साथ यहां आते हैं। भवनवासी, व्यन्तरवासी और ज्योतिष्क देवों के इन्द्र भी सात अनीकों एवं तीन पारिषदों से वेष्टित होते हुये, अपने-अपने वाहन एवं विमान श्रादि पर चढ़कर महाविभूति से युक्त होते हुये पानी-पानो देवियों के साथ यहाँ पाते हैं । समस्त अहमिन्द्र प्रासन कम्पायमान होने से जिनेन्द्र के जन्म उत्सब को जानकर और सात पर आगे जाकर मस्तक से अपने स्थान पर स्थित होकर ही जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करते हैं। इसरकार परम विभूति से मुक्त होते हुये चतुनिकाय के इन्द्र अपने समस्त देवों के साथ नाना प्रकार के देववादित्रों के शब्दों द्वारा