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पञ्चमोऽधिकार :
[ १५३ अर्थः-हिमवान् पर्वत का उल्लसन करने पर हैमदत नाम का क्षेत्र प्राप्त होता है, जिसमें शाश्वत जघन्य भोगभूमि है । जिसका भूमितल निरन्तर दशप्रकार के कल्पवृक्षों से व्याप्त रहता है। पात्र दान के फल से जो जीव यहाँ उत्पन्न होते हैं, उन पार्यों को १ मद्य (पानाङ्ग), २ वाद्य (तूर्याङ्ग), ३ अन्न (पाहाराङ्ग), ४ दीपाङ्ग, ५ वस्त्राङ्ग, ६ भाजन (पात्राङ्ग) ७ दाम (पुष्पाङ्ग), ८ ज्योतिरङ्गा ९ भूषणाङ्ग और १० गृहाङ्ग ये दस प्रकार के कल्पवृक्ष संकल्प मात्र से दस प्रकार के उत्तम भोग देते हैं 1.२७-१२६ नाभिपर्वतों के नाम, प्रमाण, स्थान एवं स्वामी ग्रादि का वर्णन करते हैं:
शब्दवान प्रथमो नाभिगिरिविकृतिवास्ततः । गन्धवान माल्यवानेते चत्वारो नाभिपर्वताः ॥१३०॥ सहस्रयोजनोत्सेधावृत्ताः सर्वत्र सक्षिभाः। सहस्रयोजनव्यासावनवेद्याविभूषिताः ॥१३१।। प्रत्येकं मूर्धिनचैतेषांजिनेन्द्रभवनाङ्कितम् । सप्तमूम्युन्नतः सौधर्वनवेदीसुतोरणः ॥१३२॥ यतं स्यान्नगरं रम्यं व्यन्तराणां च शाश्वतम् । क्षेत्र हैमवते शब्दवानाद्यो नाभिपर्वतः ।।१३३॥ शब्दवान्नाभिशेलान पुरे राजामराचितः।। स्वातिनामाऽमरोमान्यः पत्यकायष्क जितः ॥१३४॥ स्यादरिक्षेत्रमध्येविकृतिवान्नाभिसदगिरिः। तदद्रिस्थपुरेराजारुणप्रभामरोमहान् ॥१३५॥ रम्यकक्षेत्रमध्येस्याद्गन्धवान्नाभिपर्वतः। तन्मूर्धस्थपुरेभूपः पमप्रभाह्वयः सुरः ॥१३६।। स्या रण्यवतेवर्षेशैलो नाम्ना हि माल्यवान् । तदग्रस्थपुरे स्वामी प्रभासाख्योऽमरोऽद्भुतः ॥१३७।। ततोमहाहिमाद्रि चोल्लध्यकल्पद्रुमाश्रितम् ।
तृतीयं हरिसत्क्षेत्रां मध्यम भोग-भूतलम् ।।१३८।। अर्थ :-( शरीर के मध्य नाभि के सदृश जो पर्वत क्षेत्र के ठीक मध्य में स्थित रहते हैं उन्हें नाभिगिरि कहते हैं }। शब्दवान्, विकृतिवान्, गन्धवान् और माल्यवान् ये चार नाभि पर्वत हैं । वन एवं वेदो प्रादि से विभूषित ये वृताकार ( मोल ) पवंत १००० योजन ऊँचे और १००० योजन चौड़े