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पष्टोऽधिकारः
होने वाले तीर्थंकरों के जन्म स्नान की पीठिका सदृश है। द्वितीय पाण्डुकम्बला नाम की शिला आग्नेय दिशा में है, जो अर्जुन ( चांदी ) सदृश वर्ण से युक्त, दक्षिणोत्तर लम्बी और पश्चिम बिदेह क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले जिनेन्द्रों के जन्माभिषेक की पीठिका सदृश है । तृतीय रक्ता नाम की शिला, नैऋत्य दिशा में है, जो तपाये हुयें स्वर्ण के सदृश वर्ण से युक्त, ऐरावत क्षेत्र में उत्पन्न तीर्थङ्करों के जन्माभिषेक से निबद्ध तथा पूर्व-पश्चिम लम्बी है। इसी प्रकार रक्तकम्बला नाम की चतुर्थ शिला वायव्यदिशा में, दक्षिण-उत्तर लम्बी, रक्त वर्ण से युक्त और पूर्व विदेह में उत्पन्न होने वाले तीर्थङ्कर देवों के जन्माभिषेक से सम्बद्ध है । इन चारों शिलाओं में से प्रत्येक शिला के ऊपर देदीप्यमान रत्नमय तीन तीन सिंहासन हैं। उन सिंहासनों में से बीच का सिंहासन पांच सौ धनुष ऊंचा, भूमि पर पांच सौ 'धनुष चौड़ा, अग्रभाग पर दो सौ पचास धनुष कौड़ा तथा जिनेन्द्रव सम्बन्धी अधात तारों के जन्माभिषेक की स्थिति के लिये है। दक्षिण दिशा में स्थित सिंहासन जिनेन्द्र भगवान के जन्माभिषेक के समय सौधर्म इन्द्र के बैठने के लिये होते हैं, और उत्तर दिशा स्थित सिंहासन तोङ्किरों के जन्माभिषेक के समय ऐशानेन्द्र की संस्थिति अर्थात् बैठने के लिये हैं ।
पाण्डुक आदि चारों शिलानों एवं सिंहासन प्रादि का चित्रण निम्न प्रकार है:
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कल्पवासी, ज्योतिष्क, भवनवासो और व्यन्तरवासी देवों के इन्द्र क्रमशः घण्टा, सिंहनाद, शाल एन ऊत्तम भेरी के शब्दों तथा प्रासन आदि कम्पित होने रूप चिह्नों द्वारा जिनेन्द्र भगवान् की उत्पत्ति को जानकर परम विभूति एवं छत्र ध्वजा आदि से युक्त विमानों द्वारा प्राकाश रूपी प्रांगण को पाच्छा