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ठितीय अधिकार
[ ५३ किन्तु सरीसृप, पक्षी, सर्प, सिंह और स्त्री के लिये ऐसा नियम नहीं है, वे बीच में अन्य किसी पर्याय का अन्तर डाले बिना ही उत्पन्न हो सकते हैं । नरक से निकलने बाले जीवों की उत्पत्ति का नियम कहते हैं :
पवन यो निर्गता ये ते तिर्यग नरगतितये । कर्मभूमिषु जायन्ते गर्भजाः संशिनः स्फुटम् ।।१०५॥ अवश्यं नारकाः करा निर्गताः सप्तमोक्षिते। करजातिषु तिर्यस्त्वं लभन्ते श्वसाधकम् ।।१०।। निर्गस्य नरकाज्जीवाश्चक्र शक्लकेशवाः। सच्छत्रयो न जायन्ते पायान्स्येते चपुता दिवः ॥१०॥ चतर्थनरकादेस्य न स्युस्तीर्षकरा भुवि । निर्गत्य पञ्चमश्वभ्रामचरमाङ्गा भवन्ति न ॥१०८।। जोवाः षष्ठात किलागस्य जायते यतयो न च ।
सप्तमश्वभ्रतः सासादना मिश्राङ्किताः ।।१०।। अर्थः-प्रथम पृथ्वी से षष्ठ पृथ्वी तक के मारको जोव नरक से निकलकर मनुष्य और तियश्च इन दो गतियों में कर्मभूमिज, गर्भज (पर्याप्तक ) और संज्ञो होते हैं, तथा सातौं पृथ्वी से निकले हुये क्रूर स्वभावी नारकी जीव पुनः नरक के साधन भूत क्रूर स्वभाव वाला जाति में तिर्यञ्चपने को प्राप्त करते हैं अर्थात् सातवीं पृथ्वी से निकले हुये नारकी जीव नियम से कर्मभूमिज, गर्भज, पर्याप्तक और संजी तिर्यच होते हैं ।।१०५-१०६।।
विशेषः नरकों से निकले हुये जीव देव, नारकी, भोगभूमिज, असंजी, लक्ष्यपर्याप्तक और सम्मूच्छंन नहीं होते।
नरक से निकले हुये जीव चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण और प्रतिनारायण नहीं होते । ये उपयुक्त पदवीधारी जीव तो स्वर्ग से च्युत होकर ही आते हैं । चतुर्थ नरक से निकला हुमा जीव तीर्थदूर नहीं होता । पञ्चम नरक से निकले हुये चरमशरोरी नहीं होते। षष्ठ पृथ्वी से निकले हये सकलसंयमी नहीं होते और सप्तम पृथ्वी से निकले हुये नारको जीव सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि नहीं होते ।।१०७-१०६।। नरकस्य दुर्गन्धित मिट्टी को भीषणता का विवेचन करते हैं:
प्रथमे पटले निन्ध पूतिगन्धोऽति दुस्सहः । मृत्तिकाया भमेव च्यापन कोशाचं प्राणदुःखदः ॥११०॥