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सिद्धान्तसार दीपक
पर्वत का व्यास मूल में चार योजन, मध्य में दो योजन और शिखर पर एक योजन प्रमाण हैं । उस पर्वत के शिखर पर शोभायुक्त गृह है जो एक कोस ऊँचा, रत्नमय दिव्य भवन है, जो भूतल पर १३ कोस ( ३००० धनुष ) लम्बा ( व्यास ) मध्य में एक कोस ( २००० धनुष ) तथा अग्रभाग में ३ कोस ( १००० धनुष ) लम्बा ( व्यास ) है । इस गृह (गंगा कूट ) का अभ्यन्तर व्यास २५० धनुष है। गंगा कूट है नाम जिसका ऐसा यह गंगा देवी का गृह चार गोपुरों से युक्त और बेदिका से वेष्टित है। इसके द्वार अर्थात् दोनों किवाड़ अत्यन्त शुभ और रत्नमत्र हैं, जिनकी चौड़ाई ४० धनुष और ऊँचाई ८० नुष है। वन से विभूषित इस महल में गंगा नाम की देवी रहतो है इस महल के मस्तक - प्रग्रभाग पर एक शाश्वत और उन्नत कमल है, जिसकी कर्रिएका के ऊपर देदीप्यमान रत्नमय उन्नत - विशाल सिंहासन है | उस सिंहासन पर तेजकी मूर्ति ही हो मानो इस प्रकार की अत्यन्त भास्वर, मनोहर और अकृत्रिम, रत्नमय उत्तुंग जिनेन्द्र प्रतिमा अवस्थित है नदी के कल कल शब्दों से युक्त, महा अभिषेक की धारा के समान गंगा नदी हिमवान् पर्वत के मस्तक से उन प्रतिमा के सिर पर से सम्पूर्ण शरीर पर गिरती है || २०-३०॥
गंगा गिरने का सामान्य चित्रण निम्नप्रकार है :
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कुण्ड से निकल कर जाती हुई गंगा का एवं उसके स्थान का स्वरूप चार श्लोकों द्वारा निरूपित करते हैं:--
तत् कुण्ड देहली द्वारानिर्गत्य सा सतोरणात् । ततः खण्डप्रपाताच्या गुहासन्मुख भागता ||३१|| रूपयाचल तले तस्था गुहाया योजनानि च । द्वादशव्यामप्रायामः पञ्चाशद्योजनान्यपि ॥३२॥