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सिद्धान्तसार दीपक योजन ऊँची धारा वाली वह हरित् नदी निषध कुलाचल को छोड़कर १०० योजन दूरी पर (हरिक्षेत्र-मध्यभोगभूमि) को पृथ्वी पर गिरती है । जहाँ यह नदी गिरती है वहाँ २५० योजन चौड़ा
और ४० योजन गहरा, रत्नों की वेदी, रत्नों का द्वार और रत्नमय तोरण प्रादि से अल कृत एक कुण्ड है । उस कुण्ड के मध्य में जलसे नाकाश में [दो योजन ऊँचा और] ३२ योजन चौड़ा एक द्वीप (टापू) है । उस द्वीप के मध्य में ४० योजन ऊँचा, मूल में १६ योजन चौड़ा, मध्य में पाठ योजन चौड़ा और शिखर पर ४ योजन चौड़ा एक पर्वत है। उस पर्वत के शिखर पर एक योजन ऊँचा, भूतलपर १३ योजन लम्बा, मध्य में एक योजन और प्रग्नभाग पर अर्ध योजन लम्बा, अर्ध कोस अभ्यन्तर ध्यास,१६० धनुष चौड़े और ३२० धनुष ऊचे द्वार से युक्त, चार गोपुर, वन एवं वेदिका से सुशोभित्त तथा पद्मकणिका पर स्थित सिंहासनस्य अर्हन्त प्रतिमानों एवं दिक्कन्नात्रों के भवनों आदि से पल कुत एक दिव्य भवन है । उस भवन के अग्रभाग पर स्थित जिनबिम्ब के शरीर पर से बहती हुई वह हरित् नदो कुण्ड के दक्षिणद्वार से निकल कर तथा हरिक्षेत्र (मध्यम भोगभूमि) के मध्य भूभाग में पाकर वहां स्थित (विजयवान्) नाभिगिरि को अर्घयोजन दूर से ही छोड़कर उसकी अर्धप्रदक्षिणा करती हुई अर्थात् पूर्वाभिमुख जाकर पश्चात् दक्षिणाभिमुख होती हुई २५० योजन चौड़ी और पांच योजन गहरी वह नदी अपने प्रवेशद्वारसे पूर्वसमुद्र में प्रविष्ट करती है । उस हरित् नदी का समुद्र प्रवेश द्वार २५० योजन चौड़ा, ३७५ योजन ऊचा, दो कोस गहरा (नीव), अर्ध योजन (दो कोस) मोटा तथा प्रहन्त प्रतिमानों एवं दिक्कन्याओं के भवनों आदि से अलंकृत तोरणों से युक्त जानना चाहिये ।
हरिकान्ता नदी का वर्णन:
महाहिमवान् पर्वतस्थ महापद्म मरोवर की उत्तर दिशा में पूर्व कहे हुये तिगिर सरोवर के दक्षिणद्वार के व्यास आदि के समान प्रमाण वाला एक द्वार है । हरित नदी समान व्यास और अवगाह से युक्त हरिकान्ता नदी उस उत्तर द्वार से निकल कर सरोवर के विस्तार से हीन पर्वत के अर्ध व्यास प्रमाग अर्थात् (१०५२-५००=५५२१३:२) -२७६६४ योजन प्रमाण - हिमवान् पर्वत के तट पर्यन्त उत्तर दिशा में जाकर हरित् नदी की प्रणालिका के व्यास आदि के प्रमाण समान प्रणालिका से ४० योजन चौड़ो और २०० योजन ऊंची हरिकान्ता नदी श्रुत (शास्त्र) में कहे हुये योजनों प्रमाण अर्थात् १०० योजनों के द्वारा पर्वत को अन्तरित करती हुई पर्वत के मस्तक से हरिक्षेत्र के भूतल पर गिरती है । जहां यह नदो मिरती है वहां हरित् नदो के पतन योग्य कुण्ड आदि । के विस्तार आदि के समान कुगड, द्वीप, पर्वत और गृह प्रादि हैं। इस प्रकार उस कुण्ड के उत्तर द्वार से निकलकर हरिक्षेत्र-मध्यम भोगभूमि के मध्यभाग पर्यन्त जाकर वहां स्थित ( विजटा(विजय) वान् ) नाभिगिरि को प्रयोजन दूर से छोड़ती हुई उसकी अर्धप्रदक्षिणा करके अर्थात् पश्चिमाभिमुख होकर पश्चात् उत्तर दिशा में जाती हुई हरिल नदो के समान विस्तार और प्रवगाह के प्रमाण वाली