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सिद्धान्तसार दीपक अर्थ:-दो कोस है नींव जिनकी ऐसे महान तोरण द्वारों के उपरिम भाग में दिक्कन्याओं के अकृत्रिम, रमणीक और पंक्तिबद्ध प्रावास भवन हैं, और उन समस्त तोरणभवनों पर जिनेन्द्र भगवान की दैदीप्यमान् मणिमय दिव्य प्रतिमाएँ हैं ॥४६-४७।।
जम्बूद्वीपस्थ समस्त कुण्ड प्रादि के व्यास आदि का वर्णन :
कुण्डतद्वीपशैलानां तद्गृहाणां च वारिधेः । गंगादिक प्रवेशद्वाराणां व्यासादयोऽखिलाः ।।४।। द्विगुण द्विगुणा ज्ञेयाः सोतोकान्तास्ततोऽपरे ।
अर्धार्धाश्च भवेयुस्त्रि क्षेत्रेषु रम्यकादिषु ।।४।। अर्थ:--सीतोदा नदी अर्थात् विदेह पर्यन्त स्थित नदी पतन के कुण्ड, कुण्ड सम्बन्धी उपद्वीप (टापू), इनके ऊपर स्थित पर्वत और पर्वतों के ऊपर स्थित गृह तथा समुद्र में गंगानदियों के प्रवेश द्वारों की चौड़ाई एवं ऊँचाई का प्रमाण उत्तरोत्तर दूना दूना और इसके आगे रम्यक प्रादि तीन क्षेत्र सम्बन्धी नारी नरकान्ता आदि नदियों के पतन सम्बन्धी कुण्ड प्रादि का प्रमाण प्रामशः प्रधं प्रधं होन जानना चाहिये ।।४८-४६॥
अब पद्म आदि सरोवरों से निकलने वाली नदियों के प्रवेश व्यास प्रादि को प्राप्त करने के लिये नियम निर्धारित करते हैं :--
गंगादिसरितामादौ स्वाहवानिगमे च यः ।
स्वव्यासो योऽवगाहः स भवेद् दशगुरगो हि सः ॥५०॥ अर्थः-अपने अपने सरोवरों से निकलने वाली गंगा प्रादि नदियों के अपने अपने निर्मम व्यास और अबगाह से अपना अपना प्रवेश व्यास और अवगाह दश गुरिणत होता है ॥५०॥
विशेषार्थः-जैसे पद्म सरोवर से निकलने वाली गंगा सिन्धु का निर्गम व्यास , योजन (२५ कोस), और निर्गम गहराई । कोस है, अतः इन नदियों का समुद्र में प्रवेश करते समय ध्यास (12x१०)- ६२३ योजन और अवगाह (३ कोसx१.) =५ कोस प्रमाण होगा। यही नियम सर्वत्र जानना चाहिये। गंगा के सस्श सिन्धु का कथनः
अब्धेः प्रवेशसद्वारेषु गंगायाः समानका । जुव्यासावगाहायः सिन्धुगतापराणवम् ॥५१॥