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सिद्धान्तसार दोपक
जम्बूद्वीपे समुद्रः स्यात्, लवणाभिध श्रादिमः । द्वीपे च धातकीखण्डे, कालोदधिवाह्वयः ॥ शेषासंख्य समुद्राणां नामानि विविधानि च । स्वस्वद्वीपसमानामि, ज्ञातव्यानि शुभान्यपि ॥ १०॥
अर्थः- जम्बूद्वीप में अर्थात् जम्बूद्वीप को वेष्टित किये हुये लवणसमुद्र नाम का प्रथम समुद्र है,
अपने पान
अनेकों शुभ नामों को धारण करने वाले प्रसंख्यात समुद्र जानना चाहिये । ये सब भी बलयाकृति और अपने अपने द्वीपों को वेष्टित किये हुये हैं ॥६- १०।।
द्वीपसमुद्रों की संख्या का प्रमाण:--
मह
प्रर्धाधिकद्वयोधाराब्धीनां रोमाणि सन्ति यं । यावन्ति तत्प्रमा ज्ञेया, श्रसंख्यद्वीप वार्द्धयः ||११||
अर्थः-- अढ़ाई प्राधार-उद्धार सागर के रोमों का जितना प्रमाण होता है, उतना ही प्रमाण असंख्यात द्वीप समुद्रों का जानना चाहिये ||११||
विशेषार्थ :- व्यवहार पल्य के रोमों का जो प्रमाण है उनमें से प्रत्येक रोम के उतने खण्ड करना चाहिये जितने कि असंख्यात वर्षों के समयों का प्रमाण है। इन समस्त रोमखण्डों को एकत्रित करने पर जो प्रमारा प्राप्त हो वही एक उद्धार पल्य के समयों का प्रमाण है, और इसी प्रमाण वाले पच्चीस कोडाकोडी उद्धार पत्यों के समयों का जितना प्रमाण है उतना ही प्रमारण सम्पूर्ण द्वोप समुद्रों का है । २५ कोटाकोटि उद्धार पल्यों का ढाई उद्धार सागर होता है ।
अब द्वीप समुद्रों का व्यास (विस्तार) कहते हैं:
श्रमीषां मध्यभागेऽस्ति, जम्बूद्वीपोऽखिलादिमः । लक्षयोजनविस्तीर्णो, वृत्तो जम्बूद्र माङ्कितः ॥ १२ ॥ ततो द्विगुणविस्तारी, लवरगाव शाश्वतः । अस्माच्च द्विगुणन्यासो, धातकीखण्डइत्यपि ॥१३॥ द्विगुणद्विगुणण्यासाः सर्वे ते द्वीपसागराः । स्वयम्भूरमणाध्यन्ता, प्रकृत्रिमाः क्षयोज्झिताः ।। १४ ।।