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सिद्धान्तसार दोपक विक्रिया प्रादि ऋद्धियाँ एवं अन्य उत्तमगुण प्राप्त हुये हैं, वे सन पूर्व उपाजित पुण्य कर्म से ही प्राप्त हुये हैं ऐसा मान कर हे भव्यजनो ! इस लोक में अर्थात् मनुष्यपर्याय में उत्तम चारित्र के द्वारा निरन्तर पुण्य उपार्जन करो ।।११।।
अधिकार के अन्त में प्राचार्यवर्य रत्नत्रय धारण करने का प्रोत्साहन देते हैं:श्रेयः' श्रेयनिबन्धनोऽसुखहरः श्रेयं श्रयन्त्युत्तमाः
श्रेयेनात्र च लभ्यतेऽखिलसुखं अं याय शुद्धा क्रियाः । । श्रेयाच्छु यकरोऽपरो न च महान श्रेयस्य मूलं सुदृक्
श्रेये यत्नमनारतं बुधमना कुर्वन्तु चिच्यतः ॥११६।। इति श्री सिद्धान्तसारदीपकमहाग्रन्थे भट्टारक श्रीसकलकीति विरचिते कुलाचल, ह्रद श्रयादिदेवी विभूति वर्णनो नाम
चतुर्थोधिकार ॥४॥ अर्थः-पुण्य कल्याण का निबन्धक अर्थात् कल्याण प्राप्त कराने वाला और दुःखों का हरण करने वाला है, इसलिये सज्जन पुरुष पुण्य का आश्रय लेते हैं अर्थात् पुण्य अर्जन करते हैं । पुण्य से ही सम्पूर्ण सुखों की प्राप्ति होती है, अतः पुण्य अर्जन के लिये शुद्ध क्रियाएँ (कुल एवं पद के योग्य क्रियाएं) करना चाहिये । पुण्य से अधिक कल्याणकारी और कोई महान् नहीं है । पुण्य को जड़ सम्यग्दर्शन है इसलिये बुद्धिमानों को रत्नत्रय धर्म के द्वारा पुण्य में अर्थात् पुण्यार्जन के लिये अनवरत प्रयत्न करना चाहिये ||११६॥ इस प्रकार भट्टारक सकल कीति विरचित सिद्धान्तसार दीपक नाम के महाग्रन्थ में छह कुलाचल, छह सरोबर एवं श्री प्रादि देवकुमारियों को विभूति का वर्णन
करने वाला चतुर्थ अधिकार समाप्त ।
१ अमितु योग्यः श्रेय: सेवनीयः धर्मः इत्यर्थः । नार्य श्रेयस् शब्दः ।