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सिद्धान्तसार दीपक - रविरोध रखने का फलः -
केचित् प्राग्जन्मवैरादीन, स्मारयित्वा निरूप्य छ । मुहुनिभर्त्य दुर्वाक्यः, स्थित्वारणांगणे क्रुधा ।।७।। स्वविक्रियांग सज्ञात- नाशितायुषव्रजः ।
छेदयन्त्यखिलांगानि, नन्ति क्रुद्धाः परस्परम् ।।८।। अर्थः-कोई कोई नारको जोव पूर्व भव के वैर का स्मरण करके और बार बार भत्सना युक्त खोटे नाक्यों द्वारा उस वैर भाव को कह कर क्रोधित होबे हुये रणाङ्गण में स्थित होकर अपने शरीर को अपृथक् विक्रिया से उत्पन्न हुये । उ प्रकार के लोग शाह के द्वारा उनके सम्पूर्ण शरीर को छेद देते हैं तथा क्रोधित होते हुये परस्पर में एक दूसरे को मारते हैं ।।८७-८८।। असुरकुमारों द्वारा दिये जाने वाले दुःखों का कथनः
उद्विग्नास्तान क्वचिद्दीनान पद्धादेनारकान स्थितान् । रौद्राशयाः सुरा एस्य स्मारयित्वा पुरातनम् ।।८।। प्रागतं वैरमन्योन्यं योधयन्ति रणांगणे। स्थित्वा स्वशर्मणे हिसानन्वं कुर्वन्त उल्वणम् ।।६011 विस्फुलिंगमयों शय्यां ज्वलन्ती शायिताः परे ।
शेरते शुष्कसर्वांगा बोधनिबासुखाप्तये ।।६१॥ अर्थः-युद्ध प्रादि से हतोत्साह होकर खड़े हुये किन्हीं दोन नारकियों को दुष्ट अभिप्राय वाले असुरकुमार देव आकर पूर्व भव को याद दिलाते हुये उसी पूर्व वैर के कारण आपस में एक दूसरे नारकियों को युद्ध में लड़ाते हैं और स्वयं की सुम्न प्राप्ति के लिये महा हिंसानन्दी रौद्रध्यान करते हैं । अन्य कोई अग्निक रिणकामय जलती हुई शय्या पर उन्हें सुला देते हैं, तथा शुष्क हो गया है शरीर जिनका ऐसे कोई नारको मृत्यु द्वारा मुख प्राप्त करने की इच्छा से उस पर स्वयं सो जाते हैं ।।८६-६१॥ दुःखों के प्रकार एवं उनकी अवधि का वर्णनः-- - :: ... ... ..
शारीरं मानसं क्षेत्रोद्भवं परस्परप्रजम् । मसुरोदीरितं पञ्चप्रकारमिति, दुस्सहम् ।।६२॥ क्षणक्षणमचं तोष, कविवाचामगोचरम् । . . सहन्ते मारकानिस्पं, महदुःखं व्युतोपमम् ॥१३॥