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तृतीय अधिकाय
[७७ जिनके ऐसे ये निष्कारण युद्ध करने वाले निर्दय और भयङ्कर नारकी हम लोगों को साइना दे रहे हैं ।।१०१-१०२॥
पक्षियों के कठोर याक्रमण से हम लोग अत्यन्त दुखी किये जा रहे हैं, और कुत्ते हम लोगों मोसा रहे हैं लपायउता हे हैं।
प्रातरौद्र प्रादि दुर्यान से युक्त यहां वहाँ दौड़ने वाले दुस्खी नारकियों के करुणा उत्पादक स्वर व्याप्त रहे हैं। अन्धकूप के समान दुर्गन्धित, सम्पूर्ण क्लेशों और अशुभ सामग्रियों की खान तथा अन्तःस्थल में अति उष्ण ये नरक के प्रावास जला रहे हैं । १०४-१०५ ।।
यह दुस्सह वेदना, ये दुनिवार नारको और अकाल में प्राणों का नहीं छूटना इस प्रकार यहां दुःख देने वाले सम्पूर्ण साधन हैं । ये पूर्व जन्म में उपाजित पाप ही हमें खा रहे हैं। हम कहां जायें ? कहाँ बैठे ? यहां कोई भी हमारा रक्षक नहीं है । हम यहाँ यह दुःख रूपी समुद्र कैसे पार करें तथा बहुत सागर जीवित रहने का यह काल कैसे पूरा करें ।।१०६-१०८॥
इस प्रकार की चिन्ता करने बाले शोकाकुल और क्लेश भोगी उन नारको जीवों के अन्तरङ्ग और बाह्य अङ्गों में मानसिक, वाचनिक और कायिक ये तीन पौड़ाएं दाह उत्पन्न करती हैं। उपमा रहित, महान शोक, सन्ताप, दुःख एवं क्लेश आदि के खान स्वरूप उन नारकी जीवों का वर्णन करने के लिये कौन विद्वान समर्थ हो सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ।।१०६-११०॥
नारको शरीरों के रस, गन्ध और स्पर्श आदि का वर्णन :---
कयुकालाबुकाजोराणां यादृशो रसः कटुः । अनिष्टश्चाधिकस्तस्मात् तद्गानेषु रसोऽशुभः ॥१११॥ श्वमार्जारखरोष्ट्रादि कुणयेभ्योतिःसहः । भारकाङ्गेषु दुर्गन्धः सविशेषो घृणाकरः ।।११२॥ यादृशः करपत्रषु गोक्षुरेषु च दुःस्पृशः । तादृशः कर्कशस्पर्शस्तेषां गात्रषु विद्यते ।।११।।
अर्थ:-उन नारकी जीवों के शरीरों में कड़वी तूमड़ी और काजोर ( कटु अशुभ और अनिष्ट कारक रस होता है ॥११॥
) से भी अधिक