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तृतीय श्रधिकार चतुर्थश्वभ्रतः पूर्व, हसुरोदोरितासुखम् । भवेच्छेष चतुःश्व-षु च दुःखं प्रवद्धितम् ॥६४॥ एषां दुःखाग्धिमग्नानां पापारिप्रसितात्मनाम् । चक्षुरुन्मेषमात्रं न सुखं श्वभ्रषु जातुचित् ॥ ६५॥ इत्यसा तरां तीव्र वेदनां प्राप्य नारकोस् । उद्विग्नानां मनस्येषां विलेज
प्रदा
प्रर्थः - नरकों में शारीरिक, मानसिक, क्षेत्र जन्य, परस्पर एक दूसरे के द्वारा उत्पन्न और असुर कुमारों द्वारा दिया हुआ ये पांच प्रकार के दुस्सह दुःख होते हैं ||१२|
क्षणक्षण में उत्पन्न होने वाले तीव्र प्रसाता के तीव्र अनुभाग से युक्त, कवियों के वचन अगोचर अर्थात् कवि जिसका वर्णन करने में असमर्थ, उपमारहित महान दुःखों को नारकी जीव नित्य ही सहन करते हैं ॥६३॥
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चतुषं पृथिवी से पूर्व अर्थात् तृतीय मेघा पृथिवो पर्यन्त ही असुर कुमारों द्वारा दिया हुआ दुःख है । शेष धार नरक भूमियों में शेष चार प्रकार के ही दुःख होते हैं । पाप रूपी शत्रुओं से ग्रसित है श्रात्मा जिनकी ऐसे दुःवरूपी समुद्र में डूबे हुये नारकियों को नरकों में कदाचित् भी नेत्रके उन्मेष मात्र सुख नहीं है । इस प्रकार प्रसह्य तीव्र वेदना को प्राप्त कर उद्विग्न मन वाले इन नारकियों के हृदय में यह बहुत भारी चिन्ता उत्पन्न हो रही है ।।६४-६६॥
नारकियों द्वारा चिन्तित विषयों का वर्णन :
अहो ! दुराश्रया भूमिः प्रज्वलन्ती - यमस्पृशा ।
स्पर्शा महतो यान्ति स्फुलिङ्गकण वाहिनः ॥ ६७॥ एता दोषता विशोऽप्रक्ष्या एतत् क्षेत्रं भयास्पदम् । सन्तप्तांशु दुई वर्षयम्बुमुखोऽबरात् ||१६|
विचारण्यमिवं विष्वग् विषवल्लो मंश्वितम् । प्रसिपत्रवनं चैतदसिपत्रैर्भयङ्करम् ॥६६॥
उद्दीपयन्ति कामाग्नि वृथेमा लोहपुत्रिकाः । योधयति बलादस्मान् केचित्कूराः इमे खलाः ॥१००॥ खरोष्ट्रमन लोद्गारि ज्वलज्वालाकरालितम् ।
खरा - रटितमुत्प्रभं गिलितु नोऽभिधावति ॥ १०१ ॥