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सिद्धान्तसार दीपक नारका भीषणा एते कृपारणकृतपाणयः । निष्ठुरास्तजयन्स्यस्मान् निष्कारणरणोतहाः ।।१०२॥ पक्षिणः परुषापाता इते नोऽभिद्रवन्त्यलम् । सारमेयाश्च खायही भौषयासोऽधीताम् ।।६०३। इतः स्फरन्ति दुानान् नारकाणां प्रधावताम् । इतश्च करुणाकन्दस्वराः कथितात्मनाम् ॥१०४॥ अन्धकूपसमा एते प्रज्वलन्स्यन्तामणा । दुर्गन्धा नारकावासा विश्वक्क्लेशाशुभाकराः ॥१०॥ दस्सहा वेदनाहषा बनिवाराश्च नारकाः। प्रकाले दुस्त्यजाः प्रारणाः कृत्स्नमनासुखायहम् ॥१०६॥ प्रतः प्रागजिता श्रेयसा वयं कवलीकृताः । क्व यामः क्व च तिष्ठामः कोऽपि त्राता न जातु नः ॥१०७॥ तरिष्यामः वामम-पारं वःखवारिधिम् । नो यास्थति कथं कालो बहुसागर-जीवितम् ॥१०॥ इत्थं चिन्तयतां तेषां शोकिना क्लेश भोगिनाम् । अन्तहियाङ्गदाहिन्यो जायन्ते व्याधयस्त्रयः ॥१०६॥ महत्यः शोकसन्तापवुःखक्लेशादिखानयः ।
ताः को वर्णयितुं शक्तो विद्वांस्तेषां च्युतोपमाः ॥११०।। अर्थ:-अहो ! मृत्यु से स्पर्शित दुःखों के प्राचयभूत यह भूमि जल रही है । दुखद है स्पर्श जिसका गेसी अग्नि करणों को फैलाने वालो वायु बह रही है । दिशाओं का आभोग दीप्त हो रहा है, यह क्षेत्र अति भयास्पद है और यहाँ मेषों से नित्य ही सन्तप्त रेत को दुर्वृष्टि हो रही है ।।६७-६८॥
ये विष वन चारों ओर विष लताओं से युक्त वृक्षों द्वारा व्याप्त हैं । ये भयङ्कर प्रसिपत्र वन मसिपत्रों द्वारा व्याप्त हैं ।।६६
ये लोहमय स्त्रियाँ वृथा हो कामाग्नि को बढ़ा रही हैं । ये क्रूर और दुष्ट असुर कुमार देव हम लोगों को जबरदस्ती लड़ा रहे हैं ।।१०।।
ऊपर उठाये हैं श्रुथने ( मुख का अग्रभाग ) जिनने और जो जलती हुई ज्वाला से युक्त आग उगल रहे हैं ऐसे ये गधे और ऊँट हमें निगलने के लिये पीछे पीछे दौड़ रहे हैं। हाथ में है तलवार