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तृतीय अधिकार
[ ६३ कृत्स्नान भक्षणासाध्या, सर्वाङ्गो गकारिणी। मारकाणां क्षुधातीब्रा, जायतेऽन्तःप्रदाहिनी ॥२०॥ तया बाह्यान्तरलेषु, तरां सन्तापिताश्च ते । अशितु तिलतुल्यान्न, लभन्ते जात नाशुभात् ॥२१॥ समुद्रनीरपानाही-रशाम्या तृट् कुवेदना । विश्वाङ्गशोषिका तीवो-स्पद्यते श्वभ्रजन्मिनाम् ॥२२॥ सयातिदग्धकायास्ते, नारका दुःखविह्वलाः ।
बिन्दुमान जलं पात, प्राप्नुवन्ति न पापतः ॥२३॥ अर्थ :-नारको जीवों के हृदय को दग्ध कर देने वाली, सम्पूर्ण अङ्गों में उद्वेग उत्पन्न करने वाली तथा ( तीन लोक के) सम्पूर्ण अन्न का भक्षण करने पर भी जो शमन को प्राप्त न हो ऐसी तीन क्षुधा वेदना उत्पन्न होती है। उससे बाह्य और अतरंग में अत्यन्त सन्ताप उत्पन्न होता है किन्तु अशुभ कर्म के योग से उन्हें तिल के बराबर भी अन्न कभी खाने को नहीं मिलता ॥२०-२||
समुद्र के सम्पूर्ण जलपान द्वारा भी जो शमन को प्राप्त न हो ऐसी सर्वाङ्गों को शोषित करने वाली तीन तृषा वेदना उन नारकी जीवों के उत्पन्न होती है, जिससे शरीर मति दग्ध हो जाता है और वे नारकी जीव निरन्तर अति विह्वल होते रहते हैं, फिर भी पाप कर्म के उदय से उन्हें कभी बिन्दु मात्र भी जल पौने को प्राप्त नहीं होता ।।२२-२३।। नरक गत शीत उष्ण वेदना का कथन :
ज्वलन्ति नारकावासाः सदान्तद्स्सहोष्मभिः । अन्धकाराकुला सिन्धाः पूर्णा नारकपापिभिः ॥२४॥ लक्षयोजनमानोऽयः पिण्ड क्षिप्तोघ तत्क्षणम् । बहूष्मानलतापायः शतखण्डं प्रयाति भोः ॥२५॥ शीतश्वभ्रषु निक्षिप्तोऽयः पिण्डो मेरुमानकः ।
सद्यो विलीयते तीव्रतुषाराद्यैनं संशयः ॥२६॥ अर्थ:-निरन्तर दुस्सह अन्ताह में जलने वाले पापी जीवों से जो परिपूर्ण है, अन्धकार से व्याप्त हैं और निन्द्यनीय हैं, ऐसे नारकावास सतत् उष्ण रहते हैं । भो भव्यजनो ! ऐसे उन गरम नारकावासों में यदि एक लाख योजन का (सुमेरु सदृश ) गोला भी डाल दिया जाय तो वह भी वहाँ की भयङ्कर अग्निताप के द्वारा सैकड़ों खण्डों को प्राप्त हो जाता है । शीत बिलों में यदि मेरुपर्वत के