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सिद्धान्तसार दीपक के सश वर्ण वाले, तीन क्रोध के साथ साथ सम्पूर्ण कषायों के वशीभूत, निर्दय निन्ध तथा निरन्तर निन्ध कार्यों में ही रत, दुष्ट स्वभावी, कलह प्रिय, नपुसक वेद से युक्त और सम्पूर्ण दुःखों के समुद्र वे नारकी जीव निष्काण शुद्ध करने के लिए लजत रहते हैं। युक्त के लिये भयंकर सिंह व्याघ्र प्रादि के रूप एवं नाना प्रकार के शस्त्र आदि बना लेने में वे स्वच्छन्दता पूर्वक विक्रिया करते रहते हैं उन नारको जीवों को पूर्व भव के बैर को सूचना प्रादि देने की शक्ति से समर्थ विभङ्गावधि खोदा ज्ञान सहज हो होता है जिससे वे परस्पर में एक दूसरे को दुःख देते हुये स्वयं भो दुःखी होते हैं ।।१३-१८॥
नरकों में रोग जन्य वेदना का कथन :
कुष्ठोदरव्यथाशूलावयो ये वुस्सहा भुवि ।
रोगास्ते नारकाङ्गषु सर्वे सन्ति निसर्गतः ॥१९।। अर्थः - भूवि-मध्यलोक में कृष्ट एवं उदरशूल आदि जितने भी दुस्सह दुःख देने वाले रोग हैं ये सम्पूर्ण रोम स्वभाव से ही नारकियों के शरीर में एक साथ होते हैं ॥१६॥
विशेषार्थ:-नरकों में होने वाली रोग जनित पीड़ा का दिग्दर्शन मध्यलोक के कुष्टादि रोगों से कराया गया है । मूल प्रति के टिप्पण में मध्यलोक के ३३ हाथ की ऊँचाई वाले शरीर के रोगों का प्रमाण निकाल कर उसे समम नरक के रोगों का प्रमाण बनाया है और शेष नरकों में उसका अर्ध अर्घ प्रमाण ग्रहण किया है।
यथाः-शरीर के उत्सेध का प्रमाण ३ हाथ १२ अंगुल है । इसके सम्पूर्ण अंगुल { (३ ४२४) +१२} = ८४ होते हैं। इन ८४ अंगुलों के (८४४८४४२४) :- ५६२७०४ घनांगुल हुये। जबकि एक (१४१४१) घनांगुल में ६६ रोग हाते हैं तब ५९२७०४ घनांगुलों में कितने रोग होंगे? ऐसा
राशिक करने पर सम्पूर्ण रोगों की संख्या का प्रमाण (५६२७०४४६६) ५६८६६५८४ प्राप्त होती है और टिप्पणकार के द्वारा सप्तम नरक के रोगों का यहो प्रमाण माना गया है । इसका अर्धभाग अर्थात् (५१४१५५४) =२८४४६७६२ छठवें नरक के रोगों का प्रमाण है। इसका अर्धभाग अर्थात् २६४४१५.९२ = १४२२४८६६ पांचवें नरक के, ७११२४४८ चौथे नरक के, ३५५६२२४ तीसरे नरक के, १७७८११२ दूसरे नरक के और ८८६०५६ प्रथम नरक के रोगों का प्रमाण है । इन सबका योग करने पर ५६८६९५८४+२८४४६७६२ + १४२२४८६६+७११२४४८+ ३५५६२२४+ १७७८११२-८८६५.०५६ =११२६१०११२ अर्थात् ११ करोड २६ लाख १० हजार एक सौ बारह प्रकार के रोग (नरकों में) प्राम होते हैं ।
नरकों की क्षुत्रातृषाजन्य वेदना का वर्णन :