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सिद्धान्तसार दीपक
सप्तमोक्षितिपर्यन्तं महामरस्याश्चिरायुषः । महापापभराक्रान्ता नराइच यान्ति दुधियः ||१०१ ॥
अर्थ :-- प्रत्यन्त पाप के कारण असंज्ञी जोव प्रथम पृथ्वी तक ही जाते हैं । उत्कृष्ट पाप प्रवृत्ति सरिसर्प दूसरी पृथ्वी ( १ ली + २ री ) पर्यन्त जाते हैं। मांसभक्षी पक्षी क्रूर परिणामों के कारण तीसरी पृथ्वी पर्यन्त ( १ ली से ३ तक) जन्म हैं।
अत्यन्त क्रूर कर्म रत होने से सपं चौथी पृथ्वी (१ ली से ४ यी ) पर्यन्त जन्म लेते हैं। दाढ वाले सिंहव्याघ्र आदि पाँचवीं पृथ्वी पर्यन्त हो जाते हैं। शील रहित एवं बहुत पाप से युक्त स्त्री छठवीं पृथ्वी पर्यन्त तथा दीर्घ श्रायु को धारण करने वाले महामत्स्य और महापाप के भार से प्राक्रान्त और खोटी बुद्धि को धारण करने वाले मनुष्य सातवीं पृथ्वी ( १ ली ते ७ वीं ) पर्यन्त जाते हैं ।। ६८-१०१ ॥
विशेषः – कर्मभूमि के मनुष्य एवं पञ्चेन्द्रिय तियंन्च ही नरकों में उत्पन्न होते हैं ।
कौन जीव किस नरक में कितनी बार उत्पन्न हो सकता है, इसका विवेचन तीन श्लोकों द्वारा करते हैं :
उत्कृष्ट ेन स्वसन्तत्या सोऽसंज्ञो प्रथमावनों ।
अष्टवान् क्रमाद् गच्छेत् सरिसर्पोऽति पापतः ।। १०२ ।। सप्तवारान् द्वितीयायां तृतीयायां खगो व्रजेत् ।
षड् वाश्चि चतुर्थ्यां हि पचवारान् भुजङ्गमाः ।। १०३॥
पवम्यां च चतुर्वारान याति सिंहो निरन्तरम् । esort योषित् त्रिवारं सप्तम्यां वारद्वयं पुमान् ॥ १०४ ॥
अर्थ :- पाप के कारण यदि कोई असंज्ञो जीव उत्कृष्ट रूप से प्रथम पृथ्वी में उत्पन्न हो तो आठ बार, सरीसर्प यदि वंशा में निरन्तर उत्पन्न हो तो सात बार, पक्षी यदि मेघा में निरन्तर उत्पन्न हो तो छह बार सर्प यदि अञ्जना में निरन्तर उत्पन्न हो तो पांच बार, सिंह यदि प्ररिष्टा में निरन्तर हो तो बार बार, स्त्री यदि मघवी पृथ्वी में निरन्तर उत्पन्न हो तो तीन बार और यदि कोई मरस्य एवं मनुष्य मात्रवी पृथ्वी में उत्पन्न हो तो दो बार उत्पन्न हो सकते हैं ।। १०२-१०४ ।।
विशेष ::-नरक से निकला हुआ कोई भी जीव प्रसंज्ञी और सम्मूर्च्छन जन्म वाला नहीं होता तथा सातवें नरक से निकला हुआ कोई भी जीव मनुष्य नहीं होता । वहां से निकले हुये जीव को श्रसंजो, मत्स्य और मानव पर्याय के पूर्व एक बार बीच में क्रमशः संज्ञी तथा गर्भज तिर्यश्व पर्याय धारण करनी ही पड़ती है। इसी कारण इन जीवों के बीच में एक एक पर्याय का अन्तर होता है,