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सिद्धान्तसार दीपक परं रावं प्रकुर्वाणाः पतन्त्यधोमहीतले । वज्रकण्टकशस्त्राने ततोऽतिदुःखविह्वलाः ।।६।। इव सूत्रावृताः पिण्डाः स्वयमेवोत्पतन्ति च । क्रोशत्रयं चतुर्भागाधिक योजनसप्तकम् ॥१०॥ घर्मायां शेष पृथ्वीष द्विगुणं विगुणं ततः ।
क्रमादुरपतनं ज्ञेयं नारकाणां सुदुष्करम् ॥१॥ अर्थः-उन नारक भूमियों में अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा छह पर्याप्तिया पूर्ण कर ऊपर पर श्रीय नीचे है मुख जिनके तथा जो भयङ्कर शब्द कर रहे हैं ऐसे वे नारकी नीचे भूमितल पर गिरते हैं, और बज एवं कण्टक के सरश कठोर तथा शस्त्रों के अग्रभाग के सहश तीक्षण भूमिके स्पर्श जन्य अत्यन्त दुःख से विह्वल होते हुये गेंद के समान स्वयं ऊपर उछलते हैं। उन नारको जीवों का अत्यन्त दुष्कर उत्पतन धर्मापृथ्वी में सात योजन, तीन कोश और एक कोश का चतुर्थ भाग ( ५०० धनुष )(कोस अधिक ३ कोस ) प्रमाण और अन्य शेष छह पृध्वियों में इससे दूना दूना जानना चाहिये ॥१८-६१॥ ( सातवौं पृथ्वो में ५०० योजन प्रमाण ऊपर उछलते हैं )
प्रथामीषामुत्पतनं प्रत्येक सप्तनरकेषु प्रोच्यते :--
धर्मायां नारकाः घरायो निपत्य तत्क्षण ततः सपादत्रिक्रोशाधिक सप्तयोजनानि उत्पतन्ति । वंशायां साद्विकोषाधिक पञ्चदश योजनानि । मेघायां क्रोशाधिकैक त्रिशद्योजनानि । अञ्जनायां साहिष्टि योजनानि च । अरिष्टायां पञ्चविंशत्यधिक शत योजनानि । मघव्यां साधं द्विशतयोजनानि । माधव्या नारकाः भूमेः पंचशतयोजनानि चोत्पतन्ति ।
अब प्रत्येक नरकों में नारकियों का उस्पतन कहते हैं :
अर्थः-धर्मा पृथ्वी के नारको भूमिपर गिरने के तत्क्षण हो पृथ्वी से सात योजन ३१ कोश ऊपर उछलते हैं । वंशा पृथ्वी के १५ योजन २३ कोश, मेघा पृथ्वी के ३१ योजन एक कोश, प्रजना पृथ्वी के ६२ योजन २ कोश, अरिष्टा पृथ्वी के १२५ योजन, मघवी पृथ्वी के २५० योजन और माघवी पृथ्वी के नारको जीव ५०० योजन ऊपर उछलते हैं।
प्रब चार एलोकों द्वारा नारक पृध्वियों में सम्भव लेश्या का निरूपण करते हैं :
धर्मायां स्पाजघन्या दु-लेश्या फापोतसंहिका । वंशापो मध्यमा कापो-ताल्पा नारकजन्मिनाम् ।।१२।।