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द्वितीय अधिकार
[ ४६ पापकर्मरतानिय धर्मकर्मातिगाः पाठाः । पानवानजिनेन्द्रार्चा प्रतशोलाविदूरगाः ।।१३॥ हिसाविपञ्चपापापा नास्तिका धर्मदूषकाः । धर्मविघ्नकरा मिथ्या पापमार्गप्रवर्तकाः ।।४।। जिनशासनजनानां श्रावकारणां च पर्मिणाम् । मुनीना तोकटोणा शास्त्राणां मिवकाः खलाः ॥५॥ इत्यावि निन्यदुष्कर्म कारिणः पापपण्डिताः । नरा याश्चस्त्रियो दुटा-स्तिर्यञ्चो ऐनमानसाः ॥६॥ रौद्रध्यानेन मृस्थान्ते से ता यान्ति च पापिमः ।
समायोजन सायोगमाः सप्तेमाः इषभदुर्गसीः ॥७॥ .. अर्थः-दुष्ट चित्त वाले जो स्त्री और पुरुष निरन्तर सप्तव्यसनों में पासक्त, बहु प्रारम्भ परिग्रह में उद्यमशील, अत्यन्त असन्तोषी, नीच लक्ष्मो के संग्रह में सदा प्रयत्नशील, प्रतृप्त, कामसेवन प्रादि विषयों के मोर मांस भक्षण के लम्पटी, अभक्षभक्षण में रत, निन्ध कार्य करने वाले, अपेय अर्थात् शराब आदि का सेवन करने वाले, अत्यन्त निर्दय, क्रूर परिणामी, क रकर्म करने में संलग्न, रौद्रध्यान रत, रौद्रता एवं कृष्णलेश्या से अनुरजित, मद से उद्धत, जिनमार्ग से बहिर्भूत, तीव्र मिथ्यात्व से युक्तकुशास्त्रों के अध्ययन में उद्यत, एकान्त आदि मिथ्यारव को माश्रयदाता, पापकर्म रत, धर्म कर्म से निरन्तर दूर रहने वाले, पाठ, पात्रदान जिनेन्द्र पूजन और व्रतशील प्रादि सत्कर्मों से प्रति दूर, हिंसादि पाच पापों से युक्त, नास्तिक, समीचीन धर्म को दूषण लगाने वाले, धार्मिक कार्यों में विध्न मलने वाले. मिथ्या और पापमार्ग के प्रवर्तक, जिनशासन, जैनधर्मानुयायो, श्रावक श्राविकाओं, धर्मात्मानों मनिराजों, तीर्थंकरों और शास्त्रों को निन्दा करने वाले, दुष्ट स्वभावी निन्य और दुष्कर्म करने वाले तथा मओ पाप के पण्डित हैं वे मनुष्य एवं स्त्री तथा रोद्र परिणाम वाले दुष्ट पशु (तियंञ्च) अपनी पायु के अन्त में रौद्रध्यान से मरकर वे पापी पापोदय से अपने अपने परिणामों की योग्यतानुसार रत्नप्रभा मादि सातों नरक भूमियों में दुर्गति को प्राप्त होते हैं ॥७६-६७।।
चार श्लोकों द्वारा वहां उत्पन्न होने वाले नारकियों की स्थिति एवं उनके निपतन भौर उत्प. तन का निर्देश करते हैं :
प्रन्समुहूर्त कालेन ते तासु स्वधयोमिषु । षट् पर्याप्तोरघात्प्राप्प स्वोध्यपावाहपषोमुखाः ॥८॥