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सिद्धारास दी
तमचयावृता निन्द्याः समस्त श्वभ्रभूमिषु । इन्द्राद्यषु कुत्स्नेषु योनयः सन्ति दुष्कराः ॥७५॥ क्रोको द्वौ त्रयः क्रोशाः योजनकं द्वयं त्रयम् । योजनानां शतं चेति व्यासः प्रोक्तोऽप्यनुक्रमात् ॥७६॥ सप्तानां योनीनां क्रोशाः पञ्चततो दशतथा पञ्चदश क्रोशाः पञ्चैव योजनानि च ।।७७ ॥ दश पञ्चदशां ते योजनानां शतपञ्चकम् । इति ध्यं क्रमात्प्रोक्तं सर्वासु श्वयोनिषु ॥७६॥
अर्थः- सातों नरक भूमियों में इन्द्रक श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों से सम्बन्धित योनियाँजन्म भूमियाँ गधा, सुकर, बिल्ली, बन्दर, कुत्ता और गाय आदि के मुख सदृश ( ऊपर सकरीं भीतर चौड़ी ). मधुकृत जाल सहश, घण्टाकार और अधोमुख हैं, उनके आकार गोल, त्रिकोण और चतुष्कोण हैं; तथा वे जन्मभूमियाँ दुःस्पर्श अर्थात् तीक्ष्ण, रूक्ष एवं घन स्पर्श से सहित दुःखों को खान ( आकर ) वज्राभा अर्थात् वज्र सटश कठोर तलभाग एवं दीवालों से युक्त, अत्यन्त ग्लानि एवं दुर्गन्ध उत्पादक, घृणास्पद, अन्धकार से व्याप्त निन्द्यनीय और दुष्कर अर्थात् भयङ्कर हैं । उन सातों नरक भूमियों से सम्बंधित सम्पूर्ण जन्म घोनियों का व्यास क्रमशः १ कोश, २ कोश, ३ कोश, १ योजन, २ योजन, ३ योजन, और १०० योजन प्रमाण कहा गया है। इसी प्रकार उनकी दीर्घता भी क्रमशः ५ कोश, १० कोश, १५ कोश, ५ योजन, १० योजन, १५ योजन श्रौर ५०० योजन प्रमाण कही गई है ।।७३-७८||
अब नरक प्राप्ति के कारणभूत परिणामों एवं श्राचरणों का दिग्दर्शन & श्लोकों द्वारा किया जा रहा है:
ये सप्तयसनासक्ता बारम्भकुतोद्यमाः ।
श्रत्य सन्तोषिणो नोच-सङ्गश्री संग्रहोद्यताः ॥७६॥ प्रतृप्ताः कामसेवाद्य विषयाभिषलम्पटाः । खाद्यवादका निन्द्या अपेयपानपायिनः ||८०|| प्रत्यन्तनिर्दधाः क्रूराः क्रूरकर्मविधापिनः ।
ध्यानरता रौद्राः कृष्णलेश्या मदोद्धृताः ॥८१॥
जिनमार्ग बहिर्भू तांस्तीच मिथ्यात्व वासिताः । कुशास्त्राध्ययनोद्युक्का मिथ्यैकान्तमताश्रिताः ॥८३॥