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द्वितीय अधिकार
[ ३६ योजन को १२ से भाग वेने पर (७५०००१२)६५०० योजन प्रति पटल अत्तर का प्रमाण प्राप्त होता है । इसी प्रकार द्वितीया आदि पृथिवियों में जानना चाहिये ।।५८।।
सातों पृष्टिवयों के बिल व्याप्त क्षेत्र का प्रमाग:
धर्मायां बिलव्याप्तक्षेत्रं योजनानामष्टसप्ततिमहाणि । वंगायां च विशत्सहस्राणि । मेघायां पविशतिसहस्राणि । प्रजानायां द्वाविंगतिसहस्रागि। अरिष्टायां अष्टादशसहस्राणि । मघयां चतुर्दशमहस्राणि । माघध्यां बिलव्याप्तक्षेत्र पञ्चक्रोशाः क्रोग त्रिभागानामे को भागः।
___ अर्थ:-धर्मा पृथ्वी में बिल व्याप्त क्षेत्र का प्रमाण ७८००० योजन, वंशा में ३०००० योजन, मघा में २६१० : पोजन, गन्जता में २००० योजन, अरिष्टा में १८००० योजन, मघवी में १४००० योजन और माघबी पृथ्वी में विन व्यास क्षेत्र का प्रमाण ५३ कोग (महाकोग) है ।
विशेषार्थ:- रत्नप्रभा आदि छह पृथ्थियों में नीचे ऊपर की एक एक हजार योजन भूमि छोड़ कर विल स्थित हैं अतः अपनी अपनी पृथ्वी की मोटाई में से दो हजार कम कर देने पर बिल व्या भूमि का प्रमाण प्राप्त हो जाता है।
जैसे:-अब्बहुल भाग ८००००० (अस्सी हजार ) मोटाई वाला है उसमें से ऊपर नीचे के दो हजार घटा देने पर बिल व्याप्त क्षेत्र का प्रमाण ७८ हजार योजन प्राप्त हो जाता है । ऐसा ही अन्यत्र जानना । केवल ७ वी माधवी पृथ्वी के ठीक मध्य भाग में एक इन्द्रक और चार श्रेणीबद्ध घिल हैं जिनसे व्यास क्षेत्र का प्रमागा ५२ कोश मात्र है। अब बिलों का रि.थंग अन्तर चार श्लोकों द्वारा निरूपित किया जाता है :
क्रमेणवेन्द्रकरणी-बद्धप्रकीर्णकेष्वपि । संख्यातयोजनव्यास, बिलानामन्तरं स्मृतम् ।।५।। तिर्यगन्तं जघन्येन, सार्धयोजनमागमे । योजनत्रिकमुत्कृष्ट, मध्यमं बहुधा च तव ।।६०।। प्रसंख्ययोजनव्यास, बिलानां तिर्यगन्तरम् । जघन्यं योजनानां स्यात्, सप्तसहस्त्र सम्मितम् ॥६१॥ सर्वोत्कृष्टमसंख्यातयोजनान्यन्तरं स्मृतम् ।
जघन्योत्कृष्टयोर्मध्ये मध्यमं बहुभेदभाक् ॥६२।। अर्थ:-जिनागम में इन्द्रक श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों में से संख्यात योजन विस्तार वाले बिलों का तिर्थम् अन्तर जपन्य १३ योजन, उत्कृष्ट ३ योजन और मध्यम अन्तर अनेक भेद वाला कहा