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सिद्धान्तसार दीपक गया है, तथा असंख्यात योजन व्यास वाले बिलों का तिर्यग् अन्तर जघन्य सात हजार योजन, उस्कृष्ट असंख्यात योजन और जघन्य उत्कृष्ट के मध्य में रहने वाले मध्यम भेदों का तिर्यग् अन्तर अनेक प्रकार का कहा गया है ।।५६-६२।।
विशेषार्थः–इन्द्रक बिल संख्यात योजन और श्रेणीबद्ध असंख्यात योजन विस्तार वाले ही होते हैं। प्रकीर्णक में दोनों प्रकार के हैं । अब प्रत्येक पटल को जघन्य और उत्कृष्ट आयु का दिग्दर्शन कराते हैं :
प्रथमे पटले सोमन्तके चायुलघुस्थितिः । दशवर्ष सहस्त्राणि, प्रोत्कृष्ट नायुरूजितम् ।।६३॥ नवतिश्च सहस्राणि, द्वितीये स्थितरुसमा । लक्षारच नवतिश्चासंख्य पूर्वकोटि सम्मिता ॥६४।। तृतीयेऽन्येषु सर्वेषु, पटलं प्रतिवर्धते ।।
समुद्रदशभागाना-मेको भागोऽप्यनुक्रमात् ।।६।। अर्थः- प्रथम पृथ्वी के प्रथम सीमन्त पटल के नारकी जीवों की जघन्य प्रायु दश हजार (१००००) वर्ष और उत्कृष्ट आयु नब्बे हजार (६००००) वर्ष है । दूसरे पटल को उत्कृष्ट प्रायु नब्बे लाख वर्ष, तीसरे पटल की असंख्यात पूर्वकोटि और चौथे पटल की उत्कृष्ट प्रायु एक सागर के दशवें भाग अर्थात् सागर प्रमाण है । इसके प्रागे सम्पूर्ण पटलों की उत्कृष्ट प्रायु का वृद्धि चय सागर है अर्थात् पुर्व पूर्व पटलों की उत्कृष्ट प्रायु में सागर जोड़ने से प्रागे पागे के पटबों की उत्कृष्ट प्रायु प्राप्त होती जाती है ॥६३-६५।।
प्रथमे पटले ज्येष्ठं, यश्चायुस्तद्वितीयके । जघन्यं समयेनाधि-कं सर्वत्रेसि संस्थितिः ॥६६॥ अन्तिमे प्रतरेऽस्यायु-रुत्कृष्ट सागरोपमम् । द्वितीयादिष्यितिज्येष्ट-माय: स्यात्पटलेऽन्तिमे ॥६७॥ सागराश्च त्रयः सप्त-दशसप्तदशकमात् । वाविशतिस्त्रयस्त्रिश-दित्युत्कृष्टायुषः स्थितिः ।।६।। विभक्त समभागेना-मुर्भाग: प्रतरप्रमैः ।
श्वभ्राणां पटलेषु स्थात् क्रमवृद्धघा पृथक् पृथक् ॥६६॥ अर्थ:-प्रथम (ऊपर के) पहल की जो उत्कृष्ट प्रायु है उसमें एक समय अधिक कर देने पर वही द्वितीय (नीचे के ) पटल की जनन्य आयु बन जाती है यह विधि सर्वत्र जानना चाहिये ॥६६॥