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वितीय अधिकार
[ ३५ इन्द्रकादि तीनों प्रकार के बिलों का प्रमाण चार श्लोकों द्वारा कहते हैं:
पाखवन्द्रकाणांस्यात्स्यौल्यं क्रोशेकसम्मितम् ।
शेषश्यन्त्रकाणां च क्रोशाधिधिक क्रमात् ॥५४।। अर्थः-प्रथम पृथिवी के इन्द्रक बिलों का बाहुल्य एक कोश प्रमाण है और अन्य शेष पवियों के बिलों का बाहुल्य क्रमशः प्राधा आधा कोश अधिक अधिक है । अर्थात् प्रत्येक पृथ्वियों के इन्द्रकों का बाहुल्य क्रमशः १ कोश, १३, २, २३, ३, ३३ और ४ कोश प्रमाण है ॥५४॥
स्थूलत्वं प्रथमे श्व श्रेणीबद्ध षुकीर्तितम् । कोशेक शानिभिः क्रोशतृतीयभागसंयुतम् ॥५५॥ ततः षट्श्वभ्रभूमीनां श्रेणीबद्ध निश्चितम् ।
स्थौल्यं क्रोशद्विभागाभ्यां प्रत्येकमधिकं क्रमात् ॥५६॥ अर्थः-प्रथम पृथिवी के श्रेणीबद्ध बिलों का बाहुल्य ज्ञानियों के द्वारा ११ कोश माना गया है, और शेष छह पृथ्षियों में से प्रत्येक भूमि के श्रेणीबद्धों का प्रमाण भाग अधिक अधिक माना गया है । अर्थात् प्रत्येक पृथिवी के श्रेणीबद्ध बिलों का प्रमाण क्रमशः १९ कोश, २ को०, २३ कोश, ३७ कोश, ४ कोश, ४३ कोश और ५७ कोश है ॥५५-५६।।
पिण्डितं यच्च बाहल्यमिन्द्रकश्रेणिबद्धयोः ।
पृथक् षट्पृथिवीनां तत् प्रकोणकेषु सम्मतम् ॥५७॥ अर्थः-प्रथम आदि छह पश्चियों के इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिलों के बाहल्य का जो प्रमाण है उसे पृथक् पृथक् पृथ्वी का जोड़ने पर जो प्रमाण प्राप्त होता है वही उस पृथ्वी के प्रकीर्णक बिलों के बाहुल्य का प्रमाण माना गया है । अर्थात् १ (१+t) =२९ कोश, २ (१३१२)=३३ कोश । ३ (२+२)=४३ कोश 1 ४ (२३+३)=५ कोश । ५ (३+ ४)=७ कोश । ६ (३३ + ४)= कोश, सातवीं पृथ्वी में प्रकीर्णक बिलों का प्रभाव है ।।५७।।
प्रतोऽमीषां सुख बोधाय पृथग व्याख्यानं क्रियतेः
रत्नप्रभायामिन्द्रकाणां स्थूलत्वं क्रोशः स्यात् । श्रेणीबद्धानां क्रोशत्रिभागीकृतस्यैकभागाधिकक्रोशः । प्रकीर्णकानां कोशतृतीयभागाधिको द्वौ कोशी । शर्करायां चेन्द्रकानां स्थौल्यं सार्धक्रोशः । श्रेणीबद्धानां द्वौ कोशौ । प्रकीर्णकानां साधंत्रिकोशाः । बालुकायां इन्द्रकाणां बाहुल्यं द्वौ कोशी । श्रेणीबद्धानां द्वो कोशौ कोशत्रिभागानां द्वौ भागो। प्रकोणकानां चत्वारः क्रोशाः क्रोश विभागानां द्वौ भागा । पङ्कप्रभायां इन्द्रकायां सार्धद्विक्रोशौ । श्रेणीबद्धानां क्रोशास्त्रयः क्रोशतृतीयभागः ।