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सिद्धान्तसार दोपक नवनवतिसहस्र-द्विशत-त्रिनबति प्रमाणाः प्रकीर्णकाः । अरिष्टायां इन्द्रकाः पञ्च । श्रेणीबा षष्ट्यधिकद्विशतप्रमाः प्रकीर्णकाः द्विलक्ष-नवनवतिसहस्र-सप्तशत-पञ्चविंशत्यसंख्याः स्युः । भव इन्द्रकाः श्रयः । श्रेणीबद्धाः षष्टिश्च । प्रकीर्णकाः नवनवतिसहस्रनवशतद्वात्रिंशत्प्रमाः भवन्ति ।। माधव्यां इन्द्रकः एकोऽस्मि ।
अर्थः- सातों पृध्वियों में से प्रत्येक पृथ्वी के इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों को पृषा | पृथक् सस्था :
क्रमांक नाम पृथिवी | इन्द्रक बिल श्रेणीबद्ध बिल | प्रकोणक दिख
घर्मा
२९९५५६७
४४२. २६८४
वंशा
२४९७३०५
मेघा
१४७६
१४९८५१५
अञ्जना
९९९२९३
प्रतिष्ठा
२१९७३५
मघवी
माधवी
प्रब आठ श्लोकों द्वारा सम्पूर्ण विलों के व्यास का विवेचन करते हैं :
बिलानि सप्तभूमीनां चतुर्भागाश्रितानि च । असंख्पयोजन व्यासानि प्रोक्तानि जिनागमे ।।४६।। तेषां पञ्चमभागस्थ-बिलानि दुष्कराणि च ।
संख्ययोजनविस्ताराणि बोभत्साशुभान्यपि ।।४७।। अर्थ:-जिनागम में सातों नरकों में से अपने अपने नरक बिलों को संख्या का भाग असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों का प्रमाण कहा गया है, और उन्हीं अपने सम्पूर्ण बिलों का भाग वीभत्स, अशुभ और दुःखोत्पादक संख्यात योजन विस्तार वाले बिलों का प्रमाण कहा है ।।४६-४७॥
विशेषार्थ:-न्यथा-प्रथम पृथ्वी के कुल बिलों की संख्या तीस बाख है, इसका भाग अर्थात् ३००००००x=२४००००० ( चौबीस लाख } बिल असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं और