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भगवती - आराधना / २१
अ० १३ / प्र० १
यथा घटार्थी तुरिवेमादीन् । मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात् । यच्चात्मनोऽभिप्रेतस्योपायस्तन्नियोगत उपादत्ते यथा चक्रादिकं तथा यतिरप्यचेलताम् । तदुपायता चाचेलताया जिनाचरणादेव ज्ञानदर्शनयोरिव ।" (गा.' जिणपडिरूवं'८४/पृ.१२०)।
अनुवाद - "यह अचेललिंग जिनदेवों का प्रतिबिम्ब है । जिनदेव मोक्ष के अभिलाषी थे और मुक्ति का उपाय जानते थे, अतः उन्होंने जिस लिंग को ग्रहण किया था, वही अन्य मोक्षार्थियों के ग्रहण करने योग्य है। क्योंकि जो जिस वस्तु को चाहता है और विवेकशील होता है, वह उन पदार्थों को ग्रहण नहीं करता, जो उस वस्तु के उपाय नहीं हैं। जैसे घटनिर्माण का इच्छुक मनुष्य तुरी - वेमादि ( पटनिर्माण के साधनों) को ग्रहण नहीं करता, वैसे ही मुक्ति का अभिलाषी साधु वस्त्र ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वस्त्र मुक्ति का उपाय नहीं है । और जो अपनी अभीष्ट वस्तु का उपाय होता है, उसे मनुष्य नियम से ग्रहण करता है । जैसे घटनिर्माण का इच्छुक व्यक्ति चक्रादि को अवश्य ग्रहण करता है, वैसे ही मोक्षार्थी साधु भी अचेलता को अनिवार्यतः अंगीकार करता है। और अचेलता ज्ञानदर्शन की तरह मुक्ति का उपाय है, यह जिनेन्द्रदेव के ही आचरण से सिद्ध है ।"
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यहाँ अपराजित सूरि ने एक अखण्ड्य युक्ति के द्वारा अचेललिंग को ही मोक्षमार्ग सिद्ध किया है। प्रश्न यह है कि भले ही तीर्थंकर अनुपम धृति और प्रथम संहनन आदि अतिशयों से युक्त थे, किन्तु जब सचेललिंग से भी मोक्ष हो सकता है, तब उन्होंने अचेललिंग क्यों चुना, जब कि वह अत्यन्त कठिन है ? जिनेन्द्र भगवान् के बारे में 'भगवान् की लीला' जैसा तर्क तो उपयुक्त नहीं हो सकता ।
इस प्रश्न के समाधान हेतु अपराजित सूरि ने विवेकवान् मनुष्यों की कार्यपद्धति को युक्ति के रूप में ग्रहण किया है । युक्ति यह है कि जो विवेकशील होते हैं, वे अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए उसी सामग्री को अपनाते हैं, जिससे कार्यसिद्धि संभव है । जिससे कार्यसिद्धि संभव नहीं है, वे उस सामग्री का अवलम्बन नहीं करते। तीर्थंकर विवेकवान् थे और उन्होंने मुक्ति के लिए अचेललिंग अपनाया था, इससे सिद्ध है कि अचेललिंग ही मोक्ष का एकमात्र उपाय है, सचेललिंग नहीं । अतः मोक्षार्थियों को उसी लिंग का आश्रय लेना चाहिए । इस युक्ति के द्वारा अपराजित सूरि ने श्वेताम्बरों की इस मान्यता को भी अयुक्तिमत् सिद्ध कर दिया है कि समान्य मनुष्यों को तीर्थंकरों द्वारा गृहीत अचेललिंग ग्रहण नहीं करना चाहिए।
किन्तु श्वेताम्बराचार्यों का कहना है कि तीर्थंकर वस्त्रत्याग इसलिए नहीं करते किं नग्नता मोक्ष का उपाय है, अपितु इसलिए करते हैं कि उन्हें वस्त्रधारण की आवश्यकता नहीं होती । कारण यह है कि उनका शरीर शुभ प्रभामण्डल से आच्छादित हो जाता
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