Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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८/गो. मा. जीवकाष्ट
सागारो उबोगो गाणे मग्गम्मि दसरणे मग्गे । अरणगारो उवनोगो लोगोत्ति जिणेहिं रिणहिट्ठो ॥७॥
गाथार्थ-इन्द्रियमार्गरणा और कायमार्गणा में जीवसमास, पर्याप्ति, श्वामोच्छु वासप्रारण, वचनबलप्राण एवं मनोबलप्राए का अन्तर्भाव हो जाता है। योगमार्गणा में क्रायबलप्राण का, ज्ञानमार्गणा में पाँच इन्द्रियप्राणों का और गतिमार्गमा में प्रायुप्राग का अन्तर्भाव हो जाता है। माया और लोभकषायमार्गणा में रतिपूर्वक पाहारसंज्ञा का, क्रोध और मानकषायमार्गगा में भय संज्ञा का, वेदमार्गणा में मथुनसंज्ञा का, लोभकषायमार्गणा में परिग्रहसंज्ञा का अन्तर्भाव हो जाता है। साकारोपयोग का ज्ञानमार्गणा में और अनाकारोपयोग का दर्शनमार्गगता में अन्तर्भाव हो जाता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।।५-७।।
विशेषार्थ--इन्द्रिय और काय स्वरूप है, जीवसमास स्वरूप बाला है. इसलिए स्वरूप में स्वरूपवान् का अन्तर्भाव होने से कायमार्गणा में जीवसमास अन्तर्भूत है। इन्द्रिय और काय धर्मी हैं, पर्याप्ति धर्म है अत: धर्म-धर्मी सम्बन्ध के कारण धर्मरूप पर्याप्तियों का धर्मी अर्थात् इन्द्रिय और कायमार्गणा में अन्तर्भाव होता है। उच्छ बास-नि:श्वास, वचनबल और मनोबल प्राण कार्य हैं तथा उच्छ बास, भाषा और मन:पर्याप्ति उनका कारण है, अत: कार्य रूप उच्च बास-नि:श्वास, वचनबल और मनोबल प्राणों का कारणरूप पर्याप्ति में अन्तर्भाव है और पर्याप्ति धर्म-धर्मी सम्बन्ध के कारण इन्द्रिय और कायमार्गणा में अन्तभूत है, अतः उनछ बास-नि:श्वास, बचनबल और मनोबलप्रारण का अन्तर्भाव भी इन्द्रिय और कायमार्गणा में हो जाता है। जीवप्रदेशों के परिस्पन्दन लक्षणवाले काययोगरूप कार्य में कायबलमारण कारण है, इसलिए कार्य-कारणभाव की अपेक्षा योगमार्गणा में कायबलप्राण अन्तर्भूत है। अथवा योग सामान्य है और कायबल विशेष है, अत: सामान्य-विशेषापेक्षा भी योगमार्गशा में कायबल प्राग अन्तर्भूत हो जाता है। ज्ञानमार्गणा में इन्द्रियों का अन्तर्भाव कार्य-कारण सम्बन्ध की अपेक्षा है, क्योंकि इन्द्रियावर राकम का क्षयोपशम कारण है और ज्ञान कार्य है। गतिमार्गरणा और पायुप्रारा सहचर धर्मी हैं, क्योंकि गतिनामकर्म और प्रायुकर्म का उदय साथ-साथ ही पाया जाता है, अत: गतिमार्गणा में प्रायुप्रारण का अन्तर्भाव होता है।
आहार की इच्छा रतिकर्मोदयपूर्वक होती है और रतिकर्म, मायाकपाय तथा लोभकषाय रागरूप कषायें हैं अतः माया और लोभकायमार्गणा में आहार संज्ञा अन्तर्भूत है। भयसंज्ञा में द्वेषरूप, क्रोधकषाय, मानकषाय कारण हैं, अतः कार्यकारणभाव की अपेक्षा भय संज्ञा का कोध-मानकषाय मार्गणा में अन्तर्भाव है । वेदकर्म का उदय कारण है और मथुनसंज्ञा उसका कार्य है इसलिए वेदमार्गमा में मैथुनसंज्ञा अन्त भूत है। लोभकाषाय के उदय से परिग्रहसंज्ञा उत्पन्न होती है, अत: लोभकषायमार्गणा में परिग्रहसंज्ञा का अन्तर्भाव है।
ज्ञानावरण कर्म व क्षयोपशम से उत्पन्न ज्ञान कारगा है एवं साकारोपयोग कार्य है, इसलिए ज्ञानमार्गणा में साकारोपयोग का अन्तर्भाव हो जाता है। इसी प्रकार दर्शनाबरणकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न दर्शन कारण है और अनाकारोपयोग कार्य है, अत: अनाकारोपयोग का दर्शनमार्गणा में अन्तर्भाव हो जाता है।