Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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विषमप्रापणा
समाधान-यह आशंका ठीक नहीं है, क्योंकि जो संक्षेपरुचि वाले होते हैं वे द्रव्याथिक अर्थात् सामान्य प्ररूपणा से ही तत्त्व को जानना चाहते है और जो विस्ताररुचि वाले होते हैं, वे पर्यायाथिक अर्थात् विशेष प्ररूपणा के द्वारा तत्त्व को समझना चाहते हैं। इसलिए इन दोनों प्रकार के प्राग्गियों के अनुग्रह के लिए यहाँ दोनों प्रकार की प्रहपायों का कथन किया गया है।
'गुग' कहने से गुरगस्थान का ग्रहण होता है ।
शङ्का - नाम के एक देश के कथन करने से सम्पुर्ण नाम के द्वारा कहे जाने वाले अर्थ का बोध कसे सम्भव है ?
समाधान नहीं, त्रयोंकि बलदेव शब्द के वाच्यभूत अर्थ का उसके एकदेश रूप 'देव' शब्द से भी बोध होना पाया जाता है। इस प्रकार प्रनीति-सिद्ध बात में 'यह नहीं कहा जा सकता' ऐसा कहना निष्फल है, अन्यथा सर्वत्र अज्यवस्था हो जात्रगी।
अथबा औदयिक, प्रौपशपिक, क्षायिक,क्षायोपणमिक और पारिशामिक ये पाँच गुण हैं । कर्मों के उदय से उत्पन्न होने बाला गुगा प्रौदायिक है । कर्मों के उपशम से उत्पन्न होने वाला गुण औपशमिक है । कमों के क्षय से उत्पन्न होने वाला गुगण क्षाधिक है। कर्मों के क्षय और उपशम से उत्पन्न होने वाला गुश क्षायोपमिक है। कमी के उदय, उपशम, मन और क्षयोपशम के बिना उत्पन्न होने वाला गुण पारिणाभिक है। इन गुणों के साहचर्य से प्रात्मा भी गुण संज्ञा को प्राप्त होता है। जिनमें गुरग संज्ञा वाले जीव रहते हैं उन स्थानों की गुणस्थान संज्ञा है। वे गुरगस्थान १४ हैं। उनमें से प्रथम गुणस्थान से बारहवें गुणास्थान तक तो दर्शनमोहनोयकर्म के उदय, उपशम, क्षय व क्षयोपशम की अपेक्षा होते हैं। अन्त के दो गुणस्थान सद्भाव व अभाव की अपेक्षा होते हैं। 'मोहजोगभवा' अर्थात् गुणस्थान संज्ञा मोह और योग से उत्पन्न होती है।
मार्गगणा, गवेषणा और अन्वेषणा ये तीनों एकार्थवाची हैं। सल, संख्या आदि अनयोगद्वारों मे युक्त चौदह गुणास्थान जिसमें या जिसके द्वारा खोजे जाते हैं, वह मार्गणा है । मार्गणाएँ कर्मों के निमित्त मे होती हैं।
___ गुगास्थान और मार्गगाा में शेष प्ररूपरणायों का अन्तर्भावप्रादेसे संलीणा जीवा पज्जतिपासण्णायो ।
उवयोगो वि य भेदे वीसं तु परूवा भरिगदा ॥४॥ गाथार्थ-आदेश अर्थात मागरणात्रों में जीवणमास, पनि, प्राण, संज्ञा और उपयोग का अन्तर्भाव हो जाता है । भेद विवक्षा में बोस प्ररूपणा कही हैं ।।४।।
प्रमागगानों का मार्गणाओं में अन्तर्भाव-- इंदियकाये लोरणा जीवा पज्जत्ति प्रारणभासमरणो । जोगे कानो गाणे अक्खा गदिमग्गणे आऊ ॥५॥ मायालोहे रदिपुवाहारं कोहमारणगम्मि भयं । वेदे मेहुणसण्णा लोहम्मि परिग्गहे सरणा ॥६॥
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