Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
मंगलाचरण/५
शङ्का-मिथ्या दृष्टि जीव सुगति को प्राप्त नहीं होते हैं, क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना मिथ्यादृष्टियों के ज्ञान में ममीचीनता नहीं पाई जाती तथा समीचीनता के बिना उन्हें मुगति नहीं मिल सकती। फिर मिथ्याष्टियों के ज्ञान और दर्शन को मंगलपना कैसे है ?
समाधान-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि प्राप्त के स्वरूप को जानने वाले, इधस्थों के ज्ञान-दर्शन को केवलज्ञान और केवलदर्शन के अवयवरूप से निश्चय करने वाले और पावरणरहित अनन्तज्ञान और अनन्त दर्शनरूप शक्ति से युक्त प्रात्मा का स्मरण करने वाले सम्यग्दृष्टियों के ज्ञान और दर्शन में जिस प्रकार पाप का क्षयकारीपन पाया जाता है उसी प्रकार मिथ्या दृष्टियों के ज्ञान और दर्शन में भी पाप का क्षयकारीपन पाया जाता है। इसलिए मिथ्याष्टियों के ज्ञान और दर्शन को भी मंगलपना होने में विरोध नहीं है ।'
जो आत्मा वर्तमान में मंगल पर्याय से युक्त तो नहीं है, किन्तु भविष्य में मंगलपर्याय से युक्त होगी, उसके शक्ति की (नो आगमभाविद्रव्यमंगल की) अपेक्षा मंगल अनादि-अनन्त है। रत्नत्रय को धारण करके कभी भी नष्ट नहीं होने वाले रत्नत्रय के द्वारा ही प्राप्त हुए सिद्ध के स्वरूप की अपेक्षा नंगमनय से मंगल सादि-अनन्त है। अर्थात् रानत्रय की प्राप्ति से सादिपना और रत्नत्रय-प्राप्ति के अनन्तर सिद्धस्वरूप की जो प्राप्ति हुई है उसका कभी अन्त पाने वाला नहीं है। इस प्रकार दोनों धर्मों को विषय करने वाले नेगभनय की अपेक्षा मंगल सादि-अनन्त है।
सम्यग्दर्शन की अपेक्षा मंगल सादि-सान्त समझना चाहिए। उमका जघन्यकाल अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम छ्यासठसागर प्रमागा है।
इस गोम्मटसार जीवकाण्ड ग्रन्थ के प्रारम्भ होने में निमित्त श्री चामुण्डराय हैं। अथवा बद्ध, बन्ध, बन्ध के कारण; मुक्त, मोक्ष और मोक्ष के कारण इन छह तत्त्वों के निक्षेप, नय, प्रमाण और अनयोगद्वारों से भलीभाँति समझकर भव्यजन उसके ज्ञाता बने। यह ग्रन्थ अर्थप्ररूपणा की अपेक्षा तीर्थंकर से और ग्रन्थरचना की अपेक्षा गणधर से अवतीर्ण होकर गुरु-परम्परा से श्री धरसेन भट्टारक को तथा उनसे पुष्पदन्त-भूतबली प्राचार्य को प्राप्त हुआ। इन्हीं प्राचार्यद्वय के षट् खण्डागम एवं वोरसेनाचार्य की धवला टीका से श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती प्राचार्य को प्राप्त हुआ।
इस सिद्धान्तग्रन्थ के अध्ययन का साक्षात् हेतु अज्ञान का बिनाश और सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति, देव, मनुप्यादि के द्वारा निरन्तर पूजा का होना तथा प्रतिसमय असंख्यातगुरिणतरूप से कर्मों की निर्जरा का होना है। शिष्य-प्रतिशिष्य प्रादि के द्वारा निरन्तर पूजा जाना परम्परा-प्रत्यक्षहेतु है । अभ्युदय सुम्न और निःश्रेयससुख की प्राप्ति परोक्ष हेतु है ।
अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वारों की अपेक्षा श्रुत का परिमाण संध्यान है और अर्थ की अपेक्षा परिणाम अनन्त है । इस ग्रन्थ का नाम गोम्मटसार जीवकापड है। इस ग्रन्थ के मुलकर्ता (अर्थक ) श्री वर्द्धमाम भट्टारक हैं, अनुसन्धका गौतम गणधर हैं और उपग्रन्थकर्ता राग-द्वेष-मोह से रहित श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती प्राचार्य हैं। णास्त्र की प्रमागता को दिखाने के लिए ग्रन्थ के कत्ता का कथन किया गया है।
३. घ. पु. १ पृ. ५६ ।
४ ध पू. १ पृ. ५२ ।
१. श्र. पु. १ ३८-३६ 1 २. प. पु. १ पृ. ३६.४७ । ५. घ. पु. १ पृ. ६१ । ६. ध पु. १ पृ. १३ ।